Happy Diwali 2021: दीवाली पर हिंदी साहित्य की 5 कालजयी कविताएं, यहां पढ़ें…

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Diwali
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Diwali प्रकाश का पर्व है। मंगल यशगान का पर्व है। जीवन के उत्थान का पर्व है। हिंदी साहित्य में समय-समय पर कई साहित्यकारों ने अपने कलम से दीपावली पर रोशनी बिखेरी है। हिंदी की कविता साहित्य में दीपवली पर बहुत कुछ लिखा गया है। प्रेम के, श्रृंगार के, हर्ष और उल्लास के इस महापर्व पर पढ़िये यहां दीपावली पर लिखी गई 5 कालजयी कविताएं

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महादेवी वर्मा

बुझे दीपक जला लूं

सब बुझे दीपक जला लूं!
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूं!
क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आंधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित बांधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूं!
भीत तारक मूंदते दृग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उंगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूं!
लय बनी मृदु वर्त्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूं!
देख कर कोमल व्यथा को
आंसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दी
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूं!
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना !
ज्वार को तरणी बना मैं; इस प्रलय का पार पा लूं!
आज दीपक राग गा लूं !

atal behari vajpayee
अटल बिहारी वाजपेयी

आओ फिर से दिया जलाएं

आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्तमान के मोह-जाल में
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाए

harivansh rai bachchan
हरिवंशराय बच्चन

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
है कहां वह आग जो मुझको जलाए,
है कहां वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

makhan
माखनलाल चतुर्वेदी

दीप से दीप जले

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बंट-बंट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अंधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अंगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊंचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना संजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

kedarnath singh
केदारनाथ सिंह

दीपदान

जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आंचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहां भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहां जहां नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहां जहां उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहां जहां गगरी रक्खी है,
एक दिया वहां जहां बर्तन मांजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहां जहां अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में –
जहां नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहां जहां झबरा बंधता है,
एक दिया वहां जहां पियरी दुहती है,
एक दिया वहां जहां अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!

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