भारत का सबसे बड़ा आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश है। कहते हैं कि यहां पर राजनीति बच्चे मां की पेट से सीखकर निकलते हैं। राज्य में सबसे अधिक लोकसभा और विधानसभा सीटे हैं। दिल्ली से 553.4 किलोमीटर दूर बसा यूपी ने कई राजनेताओं को फर्श से अर्श तक पहुंचाया है। कहते हैं कि दिल्ली पहुंचने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। मतलब साफ है अगर राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करनी है तो पहले यूपी की जनता को समझना बेहद जरूरी है।

उत्तर प्रदेश में साल 2022 में 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव होने वाला है। राज्य में बीजेपी राज कर रही है। बीजेपी के किले को ध्वस्त करने के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी अब तो असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्ताहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी मैदान में है। यह सभी सेक्युलर दल हैं। यानि की इनके वोट बैंक में मुस्लिमों की संख्या सबसे अधिक है। कयास लगाए जा रहे थे कि बहुजन समाज पार्टी और एआईएमआईएम साथ मिलकर राज्य में चुनाव लड़ेंगे लेकिन बसा सुप्रीमो ने साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में अकेले कमान संभालेगी। पार्टी किसी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। उम्मीद थी कि शायद ओवैसी का हाथ अन्य पार्टियां थाम सकती हैं लेकिन सभी पार्टियां असदुद्दीन ओवैसी से किनारा कस रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि यूपी में तथाकथित ‘सेक्युलर’ दलों के लिए असदुद्दीन ओवैसी अछूत बन गए हैं, जिसके चलते बसपा से लेकर सपा और कांग्रेस जैसे दल AIMIM के साथ सूबे में हाथ मिलाने के तैयार नहीं हैं?

पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार तक एआईएमआईएम ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है। पार्टी की नजर अब उत्तर प्रदेश पर है। ऐसे में कथित सेक्युलर दलों की चिंता बढ़ गई है। सभी दलों को डर है कि तैयार फसल को ओवैसी काट न ले जाएं।

प्रदेश में कयासों की बयार तेजी से बह रही है। इस बीच यहा भी कयास लगाए जा रहे थे कि उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ओवैसी की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली है लेकिन मायावती ने खबरों का खंडन करते हुए रविवार को एक के बाद एक चार ट्वीट किया मायावती अपने पहले ट्वीट में लिखती हैं, “मीडिया के एक न्यूज चैनल में कल से यह खबर प्रसारित की जा रही है कि यूपी में आगामी विधानसभा आमचुनाव औवेसी की पार्टी AIMIM व बीएसपी मिलकर लड़ेगी। यह खबर पूर्णतः गलत, भ्रामक व तथ्यहीन है। इसमें रत्तीभर भी सच्चाई नहीं है तथा बीएसपी इसका जोरदार खण्डन करती है।

पूर्व मुख्यमंत्री आगे लिखती हैं, “वैसे इस सम्बन्ध में पार्टी द्वारा फिरसे यह स्पष्ट किया जाता है कि पंजाब को छोड़कर, यूपी व उत्तराखण्ड प्रदेश में अगले वर्ष के प्रारंभ में होने वाला विधानसभा का यह आमचुनाव बीएसपी किसी भी पार्टी के साथ कोई भी गठबन्धन करके नहीं लड़ेगी अर्थात् अकेले ही लड़ेगी।

मायावती ने एक के बाद एक ट्वीट किया अपने तीसरे ट्वीट में वो लिखती हैं, बीएसपी के बारे में इस किस्म की मनगढ़न्त व भ्रमित करने वाली खबरों को खास ध्यान में रखकर ही अब बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव व राज्यसभा सांसद श्री सतीश चन्द्र मिश्र को बीएसपी मीडिया सेल का राष्ट्रीय कोओर्डिनेटर बना दिया गया है।

आखिरी ट्वीट में मायावती बता रही हैं, “साथ ही, मीडिया से भी यह अपील है कि वे बहुजन समाज पार्टी व पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष आदि के सम्बन्ध में इस किस्म की भ्रमित करने वाली अन्य कोई भी गलत खबर लिखने, दिखाने व छापने से पहले श्री एस.सी. मिश्र से उस सम्बंध में सही जानकारी जरूर प्राप्त कर लें।

यहां बात सिर्फ मायावती की नहीं है बल्कि कभी ओवैसी के करीबी रहे समाजवादी पार्टी के वारिस अखिलेश यादव भी एआईएमआईएम का हाथ थामने को तैयार नहीं हैं। वहीं कांग्रेस की बात करें तो पार्टी पहले ही अपना रुख साफ करते हुए बता चुकी है कि वे राज्य में किसी के साथ गठबंधन में चुनाव नहीं लड़ेंगे। ओवैसी की उम्मीद राज्य में छोटी बड़ी पार्टियां बची हैं। ओवैसी ने ऐलान कर दिया है कि वे राजभर की अगुआई वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और कुछ अन्य छोटे दलों के फ्रंट ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी 100 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी।

बता दे कि ओवैसी से गठबंधन पर जब अखिलेश यादव से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि वो समय अलग था जब असदुद्दीन ओवैसी मेरे साथ बैठा करते थे लेकिन अब तो जगजाहिर है कि वे किसके लिए काम करते हैं। अखिलेश आगे कहते हैं सपा उन सभी पार्टियों से दूरी बनाकर रखती है जो बीजेपी के हमदर्द हैं।

असदुद्दीन ओवैसी यूपी में चुनावी मैदान में उतरकर मुस्लिम मतों को अपने पाले में लाकर सेक्युलर दलों का सियासी खेल बिगाड़ सकते हैं। ऐसे में अगर उन्हें मुस्लिम वोट नहीं भी मिलते तो वो अपनी राजनीति के जरिए ऐसा ध्रुवीकरण करते हैं कि हिंदू वोट एकजुट होने लगता है। ऐसे में तथाकथित सेक्युलर दल अगर ओवैसी के साथ मैदान में उतरे तो उन पर भी मुस्लिम परस्त और कट्टरपंथी पार्टी के साथ खड़े होने का आरोप लगेगा। यही वजह है कि ओवैसी के साथ बिहार, पश्चिम बंगाल और अब यूपी के विपक्षी दल हाथ मिलाने के तैयार नहीं हैं।

दरअसल असदुद्दीन ओवैसी की छवि साफ मुस्लिमों वाली है। सभी पार्टियों को मुस्लिम वोट बैंक प्यारा है लेकिन लीडरशिप मुस्लिम नहीं होनी चाहिए। सपा, बसपा या काग्रेंस को डर है कि यदि वे ओवैसी से हाथ मिलाते हैं तो सभी की नजरों में मुस्मिलों के हमदर्द बन जाएंगे। वहीं जो थोड़ा बहुत हिंदू वोट बैंक है उससे भी हाथ धो बैठेंगे यही मुख्य कारण है कि ओवैसी को कोई पार्टी अपनी नाव पर बैठाना नहीं चाहती है।

अगले कयास की बात करें तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने बहुत ही सूझ बूझ के साथ मुस्लिमों को अपना वोट बैंक बनाया है ऐसे में अगर वे ओवैसी के साथ हाथ मिलाते हैं तो यही बात हो जाएगी..मेहनत से तैयार फसल काटे कोई और किसान, यानि की बने बनाए वोट बैंक पर ओवैसी हावी हो जाएंगे।

By Manish Raj

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