‘शौर्य’ और ‘शहादत’ दिवस के बीच कहां खड़ा है 6 दिसंबर का दिन?

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6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद या विवादित ढांचे के विध्वंस के रूप में जाना जाता है। यह एक ऐसी घटना है जिसने आजाद भारत के भविष्य को एक अलग दिशा दी। दरअसल बाबरी मस्जिद बाबर के सेनापति मीर बाकी ने 1528-29 में बनवाई थी। बाद में अंग्रेजों के समय से ही इस स्थान को लेकर विवाद रहा। मुस्लिम जहां इसे मस्जिद मानते आए वहीं हिंदुओं का विश्वास रहा कि जहां मस्जिद है वहीं भगवान राम की जन्मभूमि है।

1822 में फैजाबाद अदालत के एक अधिकारी द्वारा पहली बार यह दावा कि मस्जिद एक मंदिर की जगह पर थी। 1855 में इस स्थल पर धार्मिक हिंसा की पहली घटना दर्ज की गई। 1859 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने विवादों से बचने के लिए मस्जिद के बाहरी हिस्से को अलग करने के लिए एक रेलिंग लगाई।

1949 में मस्जिद के अंदर मूर्तियां मिलीं। कुछ ने कहा कि यह भगवान का प्रकटीकरण है तो कुछ ने कहा कि इन्हें गुप्त रूप से रखा गया। दोनों पक्षों ने जमीन पर दावा करते हुए दीवानी मुकदमा दायर कर दिया। इस स्थल को विवादित घोषित कर दिया गया और ताले लग गए।

राजीव गांधी ने खुलवाए ताले

80 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर की मांग को तेज कर दिया था। भारतीय जनता पार्टी भी इसका जमकर समर्थन कर रही थी। 1986 में एक जिला अदालत ने फैसला दिया कि विवादित स्थल पर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दी जानी चाहिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस बात का समर्थन किया और विवादित स्थल के ताले खुलवाए। यहां तक कि इस घटना का दूरदर्शन पर प्रसारण भी किया गया। उस समय हिंदू भावनाओं को संतुष्ट करने के रूप में इसे देखा गया।

मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास

फरवरी 1989 में, विहिप ने घोषणा की कि विवादित स्थल के पास मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास किया जाएगा। देशभर से ईंटों का पूजन कर अयोध्या भेजा जाने लगा। नवंबर में, विश्व हिंदू परिषद ने गृह मंत्री बूटा सिंह और तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की उपस्थिति में “विवादित ढांचे” के निकट शिलान्यास किया। इसी महीने राजीव गांधी ने फैजाबाद में एक भाषण के दौरान कहा कि वे रामराज्य लाएंगे और उन्हें हिंदू होने पर गर्व है। हालांकि 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता गंवा दी और जनता दल नेता वीपी सिंह पीएम बने। बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार का समर्थन किया।

आडवाणी की रथ यात्रा

अगले साल साधु संतों ने 30 अक्टूबर 1990 को मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी। इस बीच वीपी सिंह ने घोषणा की कि वे मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करेंगे। बीजेपी को लगा कि ये उनके हिंदू वोट बैंक पर चोट है। सितंबर 1990 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर की मांग करते हुए रथ यात्रा निकाली। हालांकि 23 अक्टूबर को इस यात्रा को बिहार में ही रोक दिया गया। जिसके चलते बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया और सरकार गिर गई।

कारसेवकों पर चली गोली

उस समय भी कारसेवक अयोध्या पहुंच गए थे लेकिन तत्कालीन राज्य की मुलायम सिंह सरकार ने मामले में सख्ती बरती और गोली चलानी पड़ी। 30 अक्टूबर और 2 नवंबर को कारसेवकों पर गोली चलाई गई। इसमें कई मारे भी गए। कारसेवकों पर गोली चलाने का खामियाजा मुलायम सिंह को उठाना पड़ा और अगले साल उनकी कुर्सी चली गई।

कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने

1991 के चुनाव में कांग्रेस फिर से सत्ता में लौटी और पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन बीजेपी को राम मंदिर को मुद्दा बनाने का फायदा मिला। पार्टी को चुनाव में 120 सीटें मिलीं। यानी पिछले चुनाव से 35 सीटें अधिक। यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने राम मंदिर को अच्छे से भुनाया और 221 सीटें जीतीं और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।

अदालत ने निर्माण गतिविधि पर लगाई रोक

कल्याण सिंह सरकार ने आते ही 2.77 एकड़ जमीन रामजन्मभूमि न्यास ट्रस्ट को पट्टे पर दी। बाद में फिर इलाहबाद उच्च न्यायालय ने क्षेत्र में किसी भी स्थायी निर्माण गतिविधि पर रोक लगा दी। कल्याण सिंह ने सार्वजनिक रूप से आंदोलन का समर्थन किया जबकि केंद्र सरकार ने बढ़ते तनाव को रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। सीएम कल्याण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन का समर्थन करने के लिए कई कदम उठाए जैसे कि स्थल में प्रवेश आसान बनाना, कारसेवकों पर गोली न चलाने का वादा करना, क्षेत्र में केंद्रीय पुलिस बल भेजने के केंद्र सरकार के फैसले का विरोध करना आदि।

बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और वीएचपी नेताओं के बीच बैठकें

1992 के जुलाई में, कई हजार कारसेवक विवादित स्थल पर इकट्ठे हुए और मंदिर के रख-रखाव का काम शुरू हुआ। उस समय चबूतरा बनाया गया। प्रधानमंत्री राव के हस्तक्षेप के बाद यह गतिविधि नवंबर तक रोक दी गयी। इसके बाद गृह मंत्री की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और वीएचपी नेताओं के बीच बैठकें शुरू हुईं।

6 दिसंबर को कारसेवा का एलान

यह बैठकें चल ही रही थीं कि 30 अक्टूबर 1992 को विश्व हिंदू परिषद की धर्म संसद ने दिल्ली में घोषणा की कि वार्ता विफल हो गई है और 6 दिसंबर से कारसेवा शुरू होगी। केंद्र सरकार क्षेत्र में केंद्रीय पुलिस बलों की तैनाती और राज्य सरकार को भंग करने पर विचार कर रही थी लेकिन अंत में इसके खिलाफ फैसला किया गया।

दरअसल मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही थी जिसमें कहा गया कि मस्जिद के आसपास कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। ऐसे में पीएम राव को कल्याण सिंह सरकार को भंग करना सही नहीं लगा। वहीं सरकार कैबिनेट कमेटी की बैठक और राष्ट्रीय एकता परिषद में इस मुद्दे पर चर्चा कर रही थी कि अचानक बीजेपी ने परिषद का बहिष्कार किया।

बाद में कल्याण सिंह सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया कि ढांचे की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी रामजन्मभूमि न्यास ट्रस्ट को मिली जमीन पर सुनवाई टलती जा रही थी।

कारसेवक पहुंचने लगे अयोध्या

आखिर 3 दिसंबर के दिन एक लाख से ज्यादा कारसेवक अयोध्या पहुंच चुके थे। विश्व हिंदू परिषद ने साफ कर दिया था कि उनका कोर्ट से कोई लेना देना नहीं है। 4 दिसंबर आते आते कारसेवकों की संख्या 2 लाख पहुंच गई थी। ढांचा तोड़ने को लेकर नारेबाजी होने लगी थी। इन कारसेवकों के पास सरिये, कुदाल और फावड़े भी थे।

5 दिसंबर को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में भाषण दिया कि जमीन को समतल करना होगा। वहीं आडवाणी ने कहा कि अगर सरकार की कुर्बानी देनी होगी तो वह भी देंगे लेकिन जनादेश का सम्मान करेंगे। जनादेश है राम मंदिर निर्माण।

इसके बाद 6 दिसंबर की सुबह कारसेवकों की भीड़ ढांचे के आसपास जुटने लगी थी। सुरक्षा बलों ने ढांचे को घेरे रखा था। पीएम नरसिम्हा राव को भी उनके अधिकारियों ने बता दिया था कि सवा दो लाख कारसेवक अयोध्या पहुंचे हुए हैं। लखनऊ में बैठे सीएम कल्याण सिंह भी विवादितस्थल का लगातार अपडेट ले रहे थे।

कारसेवक मस्जिद के गुंबदों पर चढ़ने लगे

इस बीच ढांचे से कुछ दूरी पर बने मंच से भाषण होने लगे। बीजेपी नेताओं लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती ने धुआंधार भाषण दिए। इन लोगों के भाषणों ने वहां जुटे लोगों में उबाल ला दिया और कारसेवक जमकर नारेबाजी करने लगे। मस्जिद की हिफाजत के लिए पुलिस का घेरा मौजूद था। दोपहर होते होते कारसेवक मस्जिद के गुंबदों पर चढ़ने लगे । दोपहर 12 बजे कारसेवक तीन गुंबदों पर चढ़ चुके थे। जिस हिसाब की भीड़ थी पुलिस की तैयारी पूरी नहीं थी। भीड़ कुल्हाड़ी, हथौड़े और लोहे की छड़ें लेकर मस्जिद पर टूट पड़ी। कहने को तो मंच से नेताओं ने कारसेवकों को रुकने के लिए अपील की लेकिन ये अपील बस नाम की अपील थी।

विध्वंस

इस बीच पुलिस ने कल्याण सिंह से भीड़ को रोकने के लिए गोली चलाने की इजाजत मांगी लेकिन सीएम ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। दोपहर 2 बजे तक जहां एक तो वहीं साढ़े तीन बजे तक दूसरा गुंबद भी गिर गया। शाम 5 बजे तक मुख्य गुंबद भी जमींदोज हो गया था। शाम 6 बजे तक यूपी में राष्ट्रपति शासन लगने की बात साफ हो चुकी थी। इस बीच मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी अपना इस्तीफा तैयार कर लिया था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अपनी किताब में बाद में लिखा कि बाबरी विध्वंस तत्कालीन सीएम कल्याण सिंह द्वारा दिया गया एक धोखा था। कल्याण सिंह ने राव को आश्वासन दिया था कि मस्जिद को कुछ नहीं होगा।

2009 में आई जस्टिस लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट में 68 लोगों को विध्वंस के लिए कसूरवार बताया गया था। इन लोगों में वाजपेयी,आडवाणी, जोशी, विजय राजे सिंधिया,कल्याण सिंह का नाम था। रिपोर्ट में कहा गया कि राज्य सरकार मूक दर्शक बनी रही।

आडवाणी की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी अंजु गुप्ता के मुताबिक आडवाणी और जोशी के भाषणों ने भीड़ को उकसाया। किसी ने ऐसी अपील नहीं कि जिससे लोगों को रोका जाए। ऐसा लग रहा था जैसे इन नेताओं की भी बाबरी को गिराने में सहमति है।

मार्च 2005 की एक किताब में, इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख मलॉय कृष्ण धर ने दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की योजना आरएसएस, बीजेपी और वीएचपी के शीर्ष नेताओं ने 10 महीने पहले बनाई थी। धर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राव की आलोचना भी की थी। धर ने दावा किया कि उन्हें बीजेपी और संघ परिवार के लोगों के बीच एक मीटिंग के लिए सुरक्षा की व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया था। बकौल धर इस मीटिंग में बाबरी को गिराये जाने की प्लानिंग की गई थी।

इस मीटिंग में मौजूद आरएसएस, बीजेपी, वीएचपी और बजरंग दल के नेता सहमत हुए थे। धर ने दावा किया कि पीएम राव की इस बात पर मौन सहमति थी। अप्रैल 2014 में कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग ऑपरेशन में यह बात सामने आई थी कि बाबरी विध्वंस सुनियोजित तरीके से हुआ था। विश्व हिंदू परिषद और शिव सेना ने इसकी योजना बनाई थी।

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