सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध के मामले में मंगलवार (31 जुलाई) को फिर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मंदिर हर वर्ग का होता है और यहां कोई भी आ सकता है। सुनवाई के दौरान मंदिर के मुख्य पुजारी के बेटे की ओर से दलील दी गयी कि देवता को उनकी इच्छा और स्वरूप में रहने का अधिकार है।

सबरीमाला मंदिर पर सुनवाई के दौरान महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को जायज ठहराने की दलील दी गयी। मंदिर के मुख्य पुजारी के बेटे राहुल ईश्वर की ओर से तर्क रखा गया कि मंदिर में 300 करोड़ रुपये चढ़ावे के रूप में आते है जबकि सरकार केवल 1 लाख रुपये देती है तो ऐसे में इसे सार्वजनिक मंदिर कैसे कह सकते है? उन्होंने कहा कि सबरीमाला मंदिर की परंपरा तांत्रिक आधार पर बनाई गई है न कि वैदिक। अयप्पा न्यायिक देवता है और वही तय करेंगे उनके यहां कौन आ सकता है कौन नही। यह भी कहा गया कि देवता को उनकी इच्छा और स्वरूप में रहने का अधिकार है। यह धार्मिक मान्यताओं और विश्वास का मुद्दा है। महिलाओं को मंदिर में प्रवेश मिला, तो इसके सामाजिक परिणाम हो सकते हैं। जिससे बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। यह याचिका ऐसे लोगों ने दायर की है जिन्हें न तो मंदिर कि परम्पराओं का कोई ज्ञान है और न परंपरा से कोई लेना देना।

अपनी दलील के समर्थन में आंकड़ों के जरिये उन्होंने बताया कि 10 साल से कम और 50 साल से ज्यादा उम्र की कितनी महिलाएं मंदिर में आती हैं। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने फिर दोहराया कि मंदिर सभी का होता है और हर किसी को मंदिर में आने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि कोई कानून नहीं होने के बावजूद इस मामले में महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। मंदिर में प्रवेश के अधिकार के लिए किसी कानून की जरूरत नहीं है। यह संवैधानिक अधिकार है।

बेंच ने सवाल पूछा कि क्या महिलाओं को उम्र के हिसाब से मंदिर में प्रवेश देना संविधान के मुताबिक है? अदालत ने समानता के अधिकार का उल्लेख करते हुए कहा कि अऩुच्छेद 25 सभी वर्गों के लिए बराबर है। संविधान पीठ ने कहा कि संविधान इतिहास पर नहीं चलता, बल्कि ये संगठित और गतिशील होता है। पिछली सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने यह दलील दी थी कि अदालत को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। इसके पीछे मान्यता है कि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी थे।

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