अपने कार्यकाल में जनहित याचिका यानि पीआईएल लाकर आम आदमी को मजबूत करने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. एन. भगवती का शुक्रवार को दिल्ली में निधन हो गया। वह 95 साल के थे और लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उनका अंतिम संस्कार 17 जून को शाम 4 बजे दिल्ली के लोधी कॉलोनी स्थित शवदाह गृह में किया जाएगा।
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने ट्वीट करके उनके निधन पर शोक जताया है। पीएम मोदी ने ट्वीट में लिखा कि जस्टिस भगवती भारतीय कानूनी बिरादरी के बड़े नाम थे। न्यायिक व्यवस्था को आम लोगों तक पहुंचा कर उन्हें मजबूत करने में जस्टिस भगवती का अहम योगदान है।
वहीं राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी ने कहा कि न्यायिक व्यवस्था में उनके योगदान को हमेशा ही याद रखा जाएगा।
वह 1973 से 1986 तक सुप्रीम कोर्ट में जज थे। कार्यकाल के अंतिम 1.5 वर्षों में उन्होंने देश के सर्वोच्च अदालत के सर्वोच्च पद को संभाला। इससे पहले वे गुजरात हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर थे। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने कई प्रमुख काम किये, जिनके लिए उन्हें याद किया जाएगा-
- भगवती को पीआईएल का जनक माना जाता है। उन्होंने याचिका दाखिल करने के लिए ‘लोकस स्टैंडाई’ होने यानी मामले से जुड़े होने की शर्त हटा दी। उनका मानना था कि मूलभूत अधिकारों के मुद्दे पर कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए किसी व्यक्ति को किसी अधिकार की जरूरत नहीं है। भगवती के इस कदम से जनहित के मामले में किसी भी शख्स के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का रास्ता साफ हो गया।
- जस्टिस भगवती के कार्यकाल में ही सुप्रीम कोर्ट ने किसी आम नागरिक की चिट्ठी को भी याचिका की तरह लेना शुरू कर दिया। इससे न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था और सुलभ हो गई।
- जस्टिस भगवती ने ये भी साफ़ किया कि संविधान से हर नागरिक को मिले मौलिक अधिकार जेल में बंद कैदियों को भी हासिल हैं, उन्हें इससे वंचित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार उन्होंने कैदियों को मिले मूलभूत अधिकारों को परिभाषित किया।
- मेनका गांधी पासपोर्ट मामले में उन्होंने अनुच्छेद 21 की नई व्याख्या करते हुए ये साफ किया कि संविधान के तहत हर नागरिक को मिला जीवन का मौलिक अधिकार सिर्फ जीने तक सीमित नहीं है। जीवन जीने का अर्थ है, सम्मान के साथ जीवन जीना। इसके बाद ‘right to life’ को ‘right to life with dignity’ की तरह लिया जाने लगा।
- हालांकि विवादों से भी जस्टिस भगवती अछूते नहीं रहें। आपातकाल के दौरान आपातकाल में वह एडीएम जबलपुर ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण’ केस में संबंधित पीठ का हिस्सा थे और अपने विवादित फैसले को लेकर उनकी खूब आलोचना हुई थी। 1976 के इस फैसले में 5 जजों की बेंच ने इमरजेंसी के दौरान किसी शख्स को हिरासत में लेने के सरकार के अधिकार की पुष्टि की थी। भगवती इस बेंच के सदस्य थे। हालांकि अपने इस फैसले को 30 साल बाद स्वयं भगवती ने ‘कमजोर कृत्य’ करार दिया था।