बाला साहेब ठाकरे का सिंहासन नहीं संभाल सके उद्धव ठाकरे

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Uddhav Thackeray: बाला साहेब ठाकरे के साथ उद्धव ठाकरे
Uddhav Thackeray: बाला साहेब ठाकरे के साथ उद्धव ठाकरे

Uddhav Thackeray:जब कभी भी आपने ठाकरे निवास या शिवसेना जो अब शिव सेना ठाकरे गुट है का मुख्यालय सेना भवन की तस्वीर देखी होगी उसमें बालासाहेब ठाकरे की एक विशेष कुर्सी रखी गई है। धारणा यही है कि बाला साहेब ठाकरे की कुर्सी पर कोई और नहीं बैठेगा,भले ही अध्यक्ष इस कुर्सी के बगल में हीं दूसरी कुर्सी लगा कर पार्टी और कार्यकर्ताओं को संबोधित कर सकता है। उद्धव ठाकरे हमेशा से अपना काम काज बगल में लगी कुर्सी पर बैठ कर ही करते रहे। पार्टी में इतना बड़ा कद साथ ही समाज में भी एक सम्माननीय जगह होने की वजह से सदैव एक विशेष सिंहासन नुमा कुर्सी दी जाने लगी। लेकिन अब वक्त बदल गया है लगता है।

हाल फिलहाल की तस्वीरों में जाहिर हो रहा है कि उद्धव ठाकरे पार्टी के अध्यक्षों की कतार से निकल कर पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों की कतार में आ गए हैं। ये बदलाव उद्धव ठाकरे और ठाकरे परिवार की गिरती हुई साख दिखाती है। आज भाजपा इस बात को लेकर ढिढोरा भी पीट रही है कि मातो श्री पर दरबार लाने वाले अब दूसरो के दरबार के दरबारी बन गए हैं। ये सब सत्ता के मोह के कारण भी हुआ जान पड़ता है।

Uddhav Thackeray: एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ मीटिंग में शामिल उद्धव ठाकरे और अन्य
Uddhav Thackeray: एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ मीटिंग में शामिल उद्धव ठाकरे और अन्य

Uddhav Thackeray:विरोध के बाद भी पवार और ठाकरे परिवार था नजदीक

शिवाजी मैदान में बाला साहेब ठाकरे का पहला भाषण अक्टूबर 1966 के दौरान बारामति से आए शरद पवार ने दर्शकों के बीच बैठ कर सुना था। बाला साहेब ठाकरे के विचारों से सहमत तो नहीं थे , लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी के खिलाफ एक जूट होने के लिए साथ मिल कर जरूर काम किया। महाराष्ट्र की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार यशवंत राव चह्वाण को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, बाला साहेब ठाकरे से मतभेद जरूर रखा लेकिन परिवारिक रिश्ता बराबर बना रहा। सुप्रिया सुले को कई बार बाला साहेब ठाकरे ने अपनी बेटी के रुप में ही माना है। शरद पवार भी अपनी एक साल की बच्ची को लेकर बाल ठाकरे के यहां रुके थे।

सुप्रिया के पहली बार राज्य सभा के लिए पर्चा भरे जाने पर बाल ठाकरे ने निर्विरोध चुने जाने के लिए रास्ता बनाया था। विरोध में किसी भी दल के उम्मीदवार नहीं खड़े करने के लिए सबों को राजी भी किया था। इसके अलावे परिवारिक शादी ब्याह या किसी और मौके पर दोनों परिवार में बेहद आत्मीयता रही है। हालांकि राजनीतिक दूरी इतनी थी कि बाल ठाकरे शरद पवार को “ मैदे की बोरी ” ही अपने भाषणों के दौरान कहा करते थे। जबकि परिवार और आत्मीय रूप से शरद पवार को “शरद बाबू” कहते थे।

उद्धव ठाकरे नहीं चल सके पिता की तेज राजनीतिक सोच पर

बाल ठाकरे महाराष्ट्र ही नहीं देश की राजनीति में अपनी तेज तर्रार सोच और व्यक्तवों के लिए मशहूर रहे हैं। पार्टी और अपनी पहचान भी इसी रुप में रखी रही। हालांकि बीजेपी से गठबंधन शिव सेना का अपनी ही शर्तों पर तब तक रहा जब तक बाल ठाकरे मौजूद रहे। इनके बाद तो शिव सेना की धार कुंद होती दिखी। कारण रहा शिव सेना को अपने चरम पर पहुंचाने वाले लोग शिव सेना को छोड़ कर अलग राह अपना लिए, क्योंकि पार्टी जनतांत्रिक नीति पर ना चलकर एक परिवार तक ही सीमित रह गई थी।

हालांकि उद्धव ठाकरे को शिव सैनिकों का सहयोग भरपूर मिला लेकिन उद्धव ठाकरे शिव सेना के बदले रुप के साथ ही लोगों के सामने आए। शिव सेना उग्र ना होकर सभ्य बन गई थी। समय के बदलाव और आधुनिक दौर में शिव सेना का नया स्वरुप जरूर है कि दूरदर्शी राजनीति के लिए बेहतर है। लेकिन महत्वाकांक्षा सबसे बड़ी कमजोरी रही। शिव सेना का कमान संभाले अभी ज्यादा दिन भी नहीं हुए कि जिस मातो श्री से सरकार रिमोट से चलती थी खुद ही सरकार में सहभागी बनने ठाकरे परिवार के सदस्य पहुंच गए।

एक नहीं दोनों पिता और पुत्र दोनों कहां तो एक को संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए थी, तो दूसरे को सरकार में शामिल लेकिन ऐसा हो नहीं सका। नतीजा हुआ कि जहां पिता बाल ठाकरे तेज और समय को परखने की राजनैतिक सोंच रखते थे उद्धव उस मार्ग से ही अलग हो गए और पार्टी में एक और विखराव हुआ।

रिमोट एनसीपी के हाथों में

1993 के बाद महाराष्ट्र में बनी सरकार का परोक्ष या प्रत्यक्ष रुप से रिमोट कंट्रोल अक्सरहां “मातोश्री” यानी बाल ठाकरे के हाथों हुआ करता था। पार्टी कोई भी हो कुछ हद तक अपना प्रभाव जरूर रखते थे। पार्टी पर अगर प्रभाव नहीं है तो महाराष्ट्र की जनता पर अपना प्रभाव रख कर अपने मन का कराने का सामर्थ जरूर रखते थे। लेकिन अब महाराष्ट्र राजनीति के चाणक्य शरद पवार ने शिवसेना जो कि ठाकरे गुट के रुप में प्रचलित है इसका रिमोट अपने हाथों में ले लिया है।

हाल में शुरू किए गए विपक्ष के जरिए एक जुट होने का कार्यक्रम और राज्य भर में केन्द्र सहित वर्तमान राज्य सरकार के खिलाफ जनता को जागृत करने लिए वज्रमूठ कार्यक्रम का नेतृत्व एनसीपी के हाथों में है। शरद पवार ने अपने एनसीपी के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने की पेश कश कर वही बात दुहराई जो कभी बाल ठाकरे ने शिव सेना में किया था। फिर से पद पर बनने के साथ ही पार्टी के हर कार्यकर्ता से सीधे संवाद अब संभव है कह कर कार्यकर्ताओं को भी फिर से बल दे दिया।

एक ओर शिव सेना विखंडन, कार्यकर्ताओं की हताशा, नेताओं का अभाव और अनुभव हीनता को झेल रहा है। लिहाजा उद्धव ठाकरे अब शरद पवार के सामने अपने स्थिती समझ चुके हैं और जैसा कि हाल की तस्वीरों में झलक दिख गई कि बराबर की कुर्सी पर नहीं सामने की कुर्सी पर बैठना पड़ा है। अब प्रदेश अध्यक्ष की श्रेणी में आकर ही संतोष करना पड़ा है।

आगामी 2024 के चुनावी साल में उद्धव ठाकरे की रणनीति फिलहाल यही दिख रही है, कि विरोधी खेमे में ही रहेंगे। लेकिन पार्टी के विखंडन के बाद अगर इस रणनीति पर रहेंगे तो उम्मीद के मुताबिक ज्यादा लाभ मिलता नहीं दिख रहा है। अब तो रिमोट कंट्रोल भी एनसीपी के हाथों में है, इस लिए पार्टी अपने मनसूबों पर कितना चल पाएगी ये तय करना मुश्किल है। हालांकि देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का होना बेहद जरूरी है क्योंकि क्षेत्रीय मुद्दों पर चलने वाली राजनीति स्थानीय लोगों तक पहुंचने में सुगम जरूर होती है।

शिवसेना का साथ छोड़कर बीजेपी ने भी बहुत बेहतर काम किया है ऐसा नहीं जान पड़ता है, क्योंकि कर्नाटक में हुई हार से बीजेपी एक बार फिर किसी ना किसी क्षेत्रीय दल की तरफ अपना हाथ बढ़ा सकती है ,ऐसे में शिव सेना के साथ अगर रहती तो दोनों दलों के बीच का सामंजस्य और बेहतर हो सकता था। लेकिन बीजेपी भी सत्ता की होड़ में शिव सेना में ही विखंडना कर सत्ता हथियाने में सफल हो सकी।

ये सफलता कहीं आगामी चुनाव में घातक ना सिद्ध हो, कहते हैं कि “पब्लिक है सब जानती है”। अगर जनता अपना जवाब देना का मन बना लेगी तो एक ही तरह की बातों को कहकर बहलावे में रखने वालों की छुट्टी भी हो सकती है।

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