सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर सुनवाई के दौरान गुरुवार (19 जुलाई) को मंदिर प्रशासन की ओर से दलील दी गयी कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी का मामला भेदभाव भरा हो सकता है लेकिन इसके संवैधानिक पहलू भी हैं और यहां की ये परंपरा है। केरल सरकार की ओर से दलील दी गयी कि सदियों से मानी जा रही परंपरा आज के हिसाब से आपराध है।
केरल की राजधानी तिरुवनंथपुरम से करीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध के मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई में केरल त्रावनकोर देवासम बोर्ड की ओर से दलीलें रखी गयीं। मंदिर प्रशासन की ओर से कहा गया कि भारत के इस शायद इकलौते मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी का मामला भेदभाव भरा हो सकता है लेकिन इसमें कई और पहलू भी हैं। बोर्ड ने काह कि दुनिया भर में अयप्पा के हज़ारों मंदिर हैं और कहीं कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन सबरीमला के स्वामी अयप्पा ब्रह्मचारी हैं। इसलिए वहां 10 से 55 वर्ष तक की महिलाओं पर रोक है। इस पर जस्टिस आर एफ नरीमन ने पूछा कि अगर किसी महिला को 45 साल में मेनोपॉज हो जाये या किसी लड़की को 9 साल की उम्र में मासिक धर्म शुरू हो जाये तो आप क्या करेंगे? इस पर मंदिर बोर्ड की ओर से कहा गया कि वह परंपरा की बात कर रहा है जिसमें यह आयु सीमा तय की गयी है।
सुनवाई के दौरान केरल सरकार ने दलील दी कि विज्ञान की तरक्की के बावजूद कोई ये गारंटी नहीं दे सकता कि 50-55 साल से ज़्यादा जीवन होगा ही। राज्य सरकार ने कहा कि बहुत सी महिलाएं दर्शन करना चाहती हैं और सरकार उनकी भावनाएं समझती है। सरकार की ओर से कहा गया कि जिस परंपरा का सैकड़ों साल से पालन हो रहा है वह आज के हिसाब से अपराध है। राज्य सरकार ने 2015 में महिलाओं के प्रवेश को मंजूरी दिए जाने की बात कही थी…लेकिन 2017 में राज्य सरकार ने अपना रुख बदल लिया था। हालांकि अब राज्य सरकार का कहना है कि वह 2015 के रुख पर कायम है।
एमिकस क्यूरे राजू रामचंद्रन ने कहा कि महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी छूआछूत जैसा ही भेदभाव है। उन्होंने कहा कि अगर किसी महिला को शरीर की प्राकृतिक जरूरतों की वजह से रोका जाता है तो ये भी दलितों से भेदभाव जैसा है।
इससे पहले बुधवार को सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश ने कहा था कि अगर मंदिर में पुरुष प्रवेश कर सकता है तो महिलाएं भी प्रवेश कर सकती हैं और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि हर औरत ईश्वर की रचना है तो रोजगार या ईश्वर की पूजा के मामले में उनके साथ भेदभाव क्यों होना चाहिए।
इस मामले में केरल हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी गयी है। केरल हाईकोर्ट ने इस पाबन्दी को सही ठहराते हुए कहा था कि मंदिर जाने से पहले 41 दिन का ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता है। महिलाएं शरीर की प्राकृतिक जरूरतों की वजह से इसे पूरा नहीं कर पातीं। इसलिए उनके प्रवेश पर पाबंदी जायज है।