‘भिखारी ठाकुर- अनगढ़ हीरा’ के बहाने भोजपुरी समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक गुत्थियों को खोलते हैं तैयब हुसैन

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मौजूदा वक्त में अगर कोई भोजपुरी की बात करता है तो ज्यादातर का ध्यान भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री पर चला जाता है। इसके अलावा सबसे पहले ख्याल उन्हीं गानों का आता है जो या तो हमको सोशल मीडिया पर या डीजे पर बजते सुनाई देते हैं। जिस तरह के गाने प्रचलित हैं वह एक अलग छवि पेश करते हैं। लेकिन बहुत लोगों को जानकर हैरानी होगी कि इसी भोजपुरी समाज से एक ऐसा शख्स निकला था जिसने समाज की चेतना जागृत करने का काम किया। जी हां, हम बात कर रहे हैं भिखारी ठाकुर की। ठाकुर कवि, गीतकार, नाटककार, रंगकर्मी,अभिनेता और नर्तक सब थे। ऐसे भोजपुरी रत्न को अपनी पुस्तक का विषय बनाया है डॉ. तैयब हुसैन ने और इसे प्रकाशित किया है राजकमल प्रकाशन ने।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जिन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर बताया, उन्हीं भिखारी का लोहा अंग्रेज सरकार भी मानती थी और उन्हें पराधीन भारत में राय बहादुर से नवाजा गया था। उनके नाटकों को देखने के लिए भारी संख्या में लोग इकट्ठा होते थे। खासकर ‘बिदेसिया’ के लिए, जब भी और जहां भी बिदेसिया का मंचन और नाटक होता था, वहां एक बेकाबू भीड़ जमा हो जाती थी। लेखक तैयब हुसैन ने किताब के आमुख में साफ किया है कि भिखारी को न तो अवतारी समझना चाहिए और न ही उन्हें नचनिया बजनिया समझ नजरअंदाज कर देना चाहिए।

लेखक ने बताया है कि कैसे 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी समाज में बिदेसिया के जरिए सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने का काम किया। ठाकुर जो खुद दलित पिछड़े समाज से आते थे, ने कला के जरिए इस तबके को अभिव्यक्ति देने का काम किया। इस तबके में भिखारी बहुत मशहूर थे। लेखक बताते हैं कि भिखारी ठाकुर नाई थे इसलिए स्त्रियां अपना सुख दुख भी खुलकर उनसे कहती थीं इसलिए वे नारी वेदना से परिचित थे।

डॉ तैयब हुसैन बताते हैं कि किस परिवेश में भिखारी ठाकुर पले बढ़े और परिवार की पृष्ठभूमि क्या थी? लेखक बताते हैं कि कैसे भिखारी ठाकुर को कला का चस्का लगा और कैसे उन्होंने नाचना गाना सीखा। लेखक तैयब हुसैन ने भिखारी के तीन पक्षों को वर्गीकृत किया है। एक है भक्ति पक्ष। जिसमें बताया गया है कि भिखारी सभी देवी देवताओं की स्तुति करते हुए रचनाएं करते थे।

वहीं बतौर समाज सुधारक भिखारी बाहरी दिखावे, रूढ़िवादिता, बेमेल विवाह, दहेज, विधवा विवाह, घर परिवार की समस्याएं और नशे की समस्याओं को रचनाओं में सामने रखते हैं। बिदेसिया में एक ऐसी महिला के दर्द को दर्शाया गया है जिसका पति उसे छोड़कर दूसरी महिला से शादी करता है, बेटी बेचवा में बेमेल विवाह की प्रथा को दर्शाया गया है, विधवा विलाप में दर्शाया गया है कि एक विधवा के साथ समाज और उसके परिवार द्वारा कैसा व्यवहार किया जाता है। उनके नाटकों और गीतों ने जाति व्यवस्था पर सबसे अधिक प्रकाश डाला। हालाँकि, उनकी लोकप्रियता के बावजूद, उन्हें अपनी जाति और खुद को महिलाओं के कपड़े पहनकर लौंडा नाच करने के लिए तिरस्कार का भी सामना करना पड़ा।

रंगकर्मी भिखारी की बात करते हु्ए लेखक लिखते हैं कि भिखारी ने नाटक के जरिए जनता की कहानी जनता से कही। वैसे आलोचक बताते हैं कि भिखारी ठाकुर के नाटक उस समय के नाटकों से भिन्न थे। ठाकुर के नाटक शास्त्रीय संस्कृत थिएटर में प्रयुक्त शैली और शेक्सपियर की शैली के करीब थे, जिसमें गाने और संवाद दोनों शामिल थे। ठाकुर द्वारा लिखे गए नाटकों ने शास्त्रीय भारतीय रंगमंच के कई सिद्धांतों को आत्मसात किया। उन्होंने अपने नाटकों में वह सब कुछ शामिल किया जो उन्हें अन्य लोकप्रिय थिएटरों से उचित और रोमांचक लगा। तैयब हुसैन की इस किताब की विशेषता ये है कि उन्होंने बताया है कि भिखारी क्यों जुदा थे। लेखक के मुताबिक भिखारी कोई सांस्कृतिक लड़ाई नहीं लड़ रहे थे जैसा कि आज कुछ लोग बताते हैं।

इस किताब में लेखक ने प्रवसन विषय पर एक अलग अध्याय लिखा है। लेखक ने बताया है कि भिखारी ने काम की तलाश में अपना परिवार छोड़ दिया और खड़गपुर चले गए। खड़गपुर से वह पुरी और फिर कलकत्ता गए। प्रवसन को भिखारी इसलिए इतने अच्छे से समझते थे क्योंकि वे खुद और उनके आस-पास के लोग अपना घर गांव छोड़ बंगाल जा रहे थे। नाटक बेटी बेचवा का उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि प्रवसन तो एक बेटी के मायके को छोड़ने में भी है। यानी सबसे अधिक भिखारी का ध्यान प्रवसन के विषय पर रहा है।

भिखारी ठाकुर का संक्षिप्त परिचय: भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक नाई परिवार में हुआ था। पारिवारिक गरीबी के कारण ठाकुर अपनी प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर सके। उन्हें केवल कैथी अक्षर और रामचरितमानस का ही ज्ञान था। भिखारी ने अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध अपनी खुद की थिएटर कंपनी बनाई। शुरुआती दिनों में उनकी कंपनी सिर्फ रामलीला का मंचन करती थी, लेकिन बाद में उन्होंने खुद के लिखे नाटकों का मंचन करना शुरू कर दिया। उनके अधिकांश नाटक खुले आसमान के नीचे दर्शकों से घिरे एक ऊंचे मंच पर प्रदर्शित किये गये। उनकी कंपनी में कुशल गायक, नर्तक और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर ने पुरुषों को अपने नाटकों में महिलाओं के रूप में शामिल किया। बाद में यह उनके नाटकों का सबसे बड़ा आकर्षण बन गया। 10 जुलाई 1971 को ठाकुर की मृत्यु हो गई।

भिखारी ठाकुर के नाटक: बिदेसिया, भाई बिरोध, बेटी बेचवा, कलजुग प्रेम और राधेश्याम बहार ,पुत्र बध, गबरघिचोर, ननद-भौजाई, गंगा असनान और बिधवा बिलाप।

नोट: 144 पेजों की इस किताब को आप राजकमल प्रकाशन से 199 रुपये (पेपरबैक रूप) में खरीद सकते हैं। आप ऑनलाइन भी ऑर्डर कर सकते हैं।

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