बिहार का सियासी माहौल हर रोज बदल रहा है। एक तरफ जहां आरएलएसपी  नेता और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा अब समरसता की खीर बनाने की बात कह  रहे हैं वहीं आरजेडी नेता तेजस्वी यादव एससी-एसटी एक्ट पर खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्हें अब इस बात का एहसास हो चला है कि अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न विधेयक पर बीजेपी पर निशाना साधना उनकी पार्टी पर भारी पड़ सकता है। बीजेपी के SC-ST एक्ट के तीर से  तेजस्वी इस कदर घायल हैं कि उसका इलाज जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा हीं कर सकते हैं। दोनों के पास अपने अपने मरहम हैं और उस मरहम के भरोसे तेजस्वी की कोशिश होगी कि SC-ST एक्ट के घाव को भरा जाए ।

वैसे भी इस मुद्दे को लेकर सामाजिक न्याय का दंभ भरने वाली पार्टियां खुद को घिरा हुआ महसूस कर रही है। आरजेडी  जैसी पार्टियों की मुश्किल ये है कि उनका पूरा अस्तित्व ही MY यानि (मुस्लिम-यादव  समीकरण पर टिका हुआ है।

मंडल की राजनीति के बाद जो वोट बैंक बना था उसका एक बड़ा हिस्सा अब नीतीश कुमार के पास  है।  रही बात एससी वोट की तो 17 फीसदी का यह वोट बैंक आरजेडी के खाते में कितना जाएगा, इसे लेकर खुद पार्टी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। जबकि दूसरी ओर 15 प्रतिशत यादव आरजेडी का कोर वोट बैंक रहा है।

गरीबों और पिछड़ों के मसीहा के रुप में नब्बे के दशक में जब लालू यादव उभरे थे तब सबसे ज्यादा फायदा यादवों को हुआ था। अनुसूचित जातियों को सशक्तिकरण के नाम पर कुछ नहीं मिला। यादव वोट आज भी आरजेडी के साथ है, लेकिन 2014 में मोदी लहर में इस वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा कमल की तरफ गया था।  ऐसे में 2019 में भी अगर यह वोट बैंक प्रधानमंत्री चुनने के लिए कमल दबा सकता है और मुख्यमंत्री के लिए लालटेन थाम ले  तो कोई आश्चर्य नहीं।

बिहार की राजनीति में तेजस्वी आए तो लगा कि यादवों के अलावा दूसरी जाति के वोटर आरजेडी की तरफ आएंगे,लेकिन उन्होंने भी खुद को यादव वोट बैंक तक हीं केंद्रित रखा। सर्वजन के मुद्दे उठाते हुए जातीय कोर वोट बैंक को साधना मजबूरी है। एससी-एसटी एक्ट पर 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से लेकर अब तक जारी राजनीतिक समर में पहली बार तेजस्वी यादव ने कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘दलितों और पिछड़ा वर्ग को लड़ाना चाहती है’। तेजस्वी के इस बयान से साफ है कि वे इस मुद्दे पर खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं।

तेजस्वी को अब पता चल चुका है कि एससी-एसटी एक्ट के गलत  इस्तेमाल की जब बात होती है तो इसकी गैर जमानती धारा सिर्फ सवर्णों के लिए नहीं, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल जातियों पर भी लागू होती है और यादव भी इसमें शामिल हैं। साफ तौर पर तेजस्वी 2019 के चुनाव से पहले ये रिस्क नहीं ही लेना चाहेंगे कि द्वारका के यदुवंशियों की बात करने वाला देश का नेता एक बार फिर उनके कोर वोट बैंक में सेंध लगा जाए। उनकी कोशिश होगी कि एससी-एसटी एक्ट पर आरजेडी से ज्यादा जीतनराम मांझी अपनी बात रखें। इसलिए आने वाले समय में एससी-एसटी एक्ट पर तेजस्वी कम बोलें और आरक्षण के रटे-रटाए राग को अलापें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कम से कम वो जय सवर्ण-जय ओबीसी के नारे को दोबारा सुनना पसंद नहीं करेंगे।

दूसरी तरफ आरएलएसपी नेता उपेंद्र कुशवाहा भी फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। बक्सर में वे दलित अतिपिछड़ा सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे तो फिर उन्हें खीर याद आ गई । उन्होंने इस बात यहा समरसता खीर का फॉर्मूला पेश किया। केंद्रीय राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि 2019 के चुनाव को लेकर कहा कि इस बार आरएलएसपी समरसता की खीर पकाएगी। जिसमें यदुवंशी का दूध होगा कोइरी का चावल और पिछड़ों का तुलसी पत्ता के अलावा मुसलमानों का भी सहयोग होगा।

इससे पहले भी खीर को लेकर वो एक बयान दे चुके हैं। उन्होंने तब कहा था कि अगर यदुवंशियों यानी यादवों का दूध और कुशवंशियों यानी कुशवाहा समाज का चावल मिल जाए तो स्वादिष्ट खीर बनने से कोई रोक नहीं सकता। इसका सीधा-साधा मतलब ये निकाला गया कि उपेन्द्र कुशवाहा यादव-कोइरी गठजोड़ की संभावना का इशारा करके महागठबंधन में शामिल होने की बात कर रहे हैं।

पिछले कुछ महीनों से जिस तरह के बयान वो देते आए हैं, उसमें ऐसे कयास लगना स्वाभाविक भी है. लेकिन क्या सच में ऐसा है? क्या उपेन्द्र कुशवाहा अब एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन को गले लगाने को तैयार है? उपेन्द्र कुशवाहा के पिछले दिनों दिए बयान और उस पर महागठबंधन में तेजस्वी यादव जैसे नेताओं की दी गई प्रतिक्रिया ने हर बार इस बात को बल दिया है कि अब उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए में बस कुछ दिनों के मेहमान हैं ।

ब्यूरो रिपोर्ट, एपीएन

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