खाटी ग्रामीण की आबादी जंगलों पर निर्भर होती है। जंगल ही इनके लिए कमाई का साधन हैं। ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग जंगलों से जड़ी बूटी, लकड़ी, दातून, फल और सूखे पत्ते बेच कर अपना घर चलाते हैं। भारत में जगलों में आग लगने की खबरे सामने आरही हैं। खासकर झारखंड के लोहरदगा और उत्तराखंड के कई जंगल शामिल हैं। इन राज्यों की सुंदरता जंगलों पर ही निर्भर है। साथ ही यहां पर रोजगार का साधन बहुत कम है इसलिए लोग जंगलों से जीविका चलाते हैं। लेकिन जंगलों में लगातार लग रही आग के कारण लोग परेशान हैं। कहा जाता है कि, इन जंगलों में लगने वाली आग ग्रामीणो द्वारा ही लगाई जाती है। उत्तराखंड के जंगलों में कई दिनों से आग धधक रही है।

मिली जानकारी के अनुसार उत्तराखंड के जंगलों में कई बार ग्रामीण जंगल में जमीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास में आग लगा देते हैं, जिससे उसकी जगह नई घास उग सके। लेकिन आग इस कदर फैल जाती है कि वन संपदा को खासा नुकसान होता है। वहीं, दूसरा कारण चीड़ की पत्तियों में आग का भड़कना भी है। चीड़ की पत्तियां (पिरुल) और छाल से निकलने वाला रसायन, रेजिन, बेहद ज्वलनशील होता है। जरा सी चिंगारी लगते ही आग भड़क जाती है और विकराल रूप ले लेती है।

वहीं झारखंड के लोहरदगा जंगल की बात करें तो, महुआ पकने पर उसे चुनने के लिए सबसे अधिक जंगलों में आग लगाई जाती है। वही परंपरागत विशु शिकार के लिए भी जंगलों में आग लगाई जाती है। हर साल जंगल में आग लगाए जाने की घटना की वजह से वनस्पतियों, जड़ी-बूटी, छोटे पौधों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचता है। लोहरदगा जिले के कुडू, किस्को, पेशरार, कैरो और सेन्हा के जंगलों में आग लगने की घटना होती है।

इसका मुख्य कारण है ग्रामीणों में जंगल के प्रति जागरूकता की कमी, यही ग्रामीण जंगलों पर निर्भर रहते हैं। पर थोड़े से लालच के कारण आग लगा देते हैं। इन्हें आग से भविष्य पर होने वाले नुकसान के बार में जागरूक करना बेहद जरूरी है। वरना इसी तरह ग्रामीण देश का और खुद का नुकसान करते रहेंगे।

झारखंड में गर्मी शुरू होने के साथ ही जब महुआ पक कर गिरने लगता है तो उसे चुनने के लिए ग्रामीण पत्ते को साफ करने के लिए जंगल में आग लगाते हैं। ग्रामीणों की यही बेवकूफी जंगल को नष्ट करती चली जाती है। पत्ता साफ करने के लिए लगाई गई आग देखते ही देखते जंगल में फैल जाती है। कई बार तो जंगली जीव भी इस आग का शिकार हो जाते हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि लोहरदगा जिले के कुडू थाना क्षेत्र के तान जंगल में महुआ चुनने और विशु शिकार को लेकर लगाई गई आग की चपेट में आने से एक युवक और एक वृद्ध के मरने की बात कही जा रही है। 

जंगल की आग वैसे मई और जून में भड़कती है। शुष्क मौसम का ही प्रकोप है कि जंगल की आग ने अप्रैल में ही प्रकोप दिखाना शुरु कर दिया है। आग जंगलों में अचानक लगने के पीछे का कारण कम वर्षा भी बताई जा रही है। अधिक बारिश के कारण जंगलों में लंबे समय तक नमी बनी रहती है। जिससे आग लगने की संभावना कम होती है। साथ ही उत्तराखंड में करीब 16 से 17 फीसदी जंगल चीड़ के हैं। इन्हें जंगलों की आग के लिए मुख्यतः जिम्मेदार माना जाता है।

उत्तराखंड में एक अप्रैल से लेकर पांच अप्रैल तक ही कुल 261 मामले सामने आए और 413 हेक्टेयर जंगल खाक हो गया। वन विभाग ने 8.37 लाख रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया है। राहत इतनी है कि मानव और वन्यजीवों को नुकसान का मामला सामने नहीं आया है।

बता दें कि, आग के कारण नष्ट हो रहे जंगलों को बचाने के लिए सरकार काफी काम कर रही है। इसलिए उत्तराखंड में अब फायर सीजन पूरे साल रहेगा। मतलब यह कि जंगलों की आग बुझाने के लिए सालभर फायर सीजन जैसी तैयारी और चौकसी रहेगी। वर्तमान में प्रदेश में 15 फरवरी से फायर सीजन शुरू होता है और 15 जून तक जारी रहता है।

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