सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि DNA Test कराना निजता के अधिकार (Right to Privacy) के खिलाफ है। इतना ही नहीं DNA टेस्ट के लिए मजबूर करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी उल्लंघन होगा। इसके लिए जरूरी है कि अदालतें नियमित रूप से लोगों के DNA टेस्ट का आदेश न दें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को सिर्फ उन मामलों में ही ऐसा करना चाहिए जहां इस तरह के टेस्ट की अत्यधिक आवश्यकता हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही दोनों पक्षों के हितों को संतुलित करने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को बॉम्बे हाई कोर्ट आदेश को रद्द करते हुआ कहा कि यदि व्यभिचार का कोई प्राथमिक सबूत नहीं है, तो शादी के बाद के समय में पैदा हुए बच्चे की वैधता की जांच के लिए DNA टेस्ट का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
DNA Test एक सामान्य टेस्ट नहीं
दरअसल, बॉम्बे हाई कोर्ट पति पत्नी के साथ वैवाहिक विवाद में पति ने शादी के बाद पैदा हुए बच्चे के DNA टेस्ट का आदेश देने की मांग करते हुए याचिका दाखिल की थी। याचिका में पति ने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी के अन्य पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध हैं और वह बच्चे का जैविक पिता नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी मामले में रिश्तों के विवाद में अगर रिश्ते को साबित करने के लिए अन्य साक्ष्य मौजूद हों तो फिर साधारण तौर पर कोर्ट को ब्लड टेस्ट का आदेश देने से बचना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर. सुभा रेड्डी की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि डीएनए टेस्ट एक सामान्य टेस्ट नहीं है और इसका इस्तेमाल व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित करने के लिए या फिर परिवार के संबंध जानने के लिए या फिर संवेदनशील हेल्थ कंडिशन जानने के लिए ही होता है।
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