फैसला वही सही माना जाता है, जो तथ्यों और तर्कों के आधार पर हो। इसमें किसी भी प्रकार का भावनात्मक, अंधविश्वास आदि जैसी चीजें न हो। इसी कारण हमारे देश का न्यायालय अपना फैसला तथ्यों और कानून के आधार पर सुनाता है। रोहिंग्या मुसलमानों के केस में भी मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी यही बात कही। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में दलीलें भावनात्मक पहलुओं पर नहीं, बल्कि कानूनी बिंदुओं पर आधारित होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि मानवीय पहलू और मानवता के प्रति चिंता के साथ-साथ परस्पर सम्मान होना जरूरी है। हालांकि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि रोहिंग्या लोगों के मामले में सुनवाई अब 13 अक्टूबर को होगी।
बता दें कि इससे पहले केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा था कि अवैध रोहिंग्या शरणार्थी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। हलफनामे में रोहिंग्या शरणार्थियों के पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों से कनेक्शन होने की बात करते हुए उन्हें किसी कीमत में भारत में रहने की इजाजत न देने की बात कही गई। केंद्र ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत देश के किसी भी हिस्से में रहने और कहीं भी आने-जाने का अधिकार देश के नागरिक को मिला हुआ है। किसी भी अवैध घुसपैठिये को ये अधिकार नहीं है।
सरकार का कहना है कि रोहिंग्याओं के देश में रहने से सांप्रदायिक दंगे भड़क सकते हैं। आईएस इन्हें भारत में हिंसा फैलाने के लिए टारगेट कर सकता है। कुछ का संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से है। हलफनामे के मुताबिक भारत में अवैध रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या 40 हजार से अधिक हो गई है। हलफनामे में सरकार ने साफ किया है कि ऐसे रोहिंग्या शरणार्थी जिनके पास संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेज नहीं हैं, उन्हें भारत से जाना ही होगा। केंद्र सरकार का कहना है कि रोहिंग्या मुसलमानों का मसला न्यायालय में विचार योग्य नहीं है। वहीं सीनियर एडवोकेट फली. एस नरीमन रोहिंग्याओं के लिए पेश हुए और सरकार के स्टैंड का विरोध किया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद-32 के तहत याचिका सुनवाई योग्य है।