1 मई 2017 को पूरे देश में कानून के रूप में लागू होने के बाद भी देश में विनियम औऱ विकास अधिनियम यानि रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी या रेरा का प्रदर्शन उम्मीद से बहुत कम रहा है।  रेरा को लेकर राज्य सरकारें कितनी गंभीर हैं इसका इस बात से पता चलता है कि देश के 28 राज्यों जहां ये अधिनियम लागू किया जाना है उनमें से केवल तीन राज्यों ने स्थानीय नियामक यानि परमानैंट रैगुलेटरी अथॉरिटी नियुक्त किया है। केवल 14 राज्यों में रेरा के शिकायती वेब पोर्टल हैं औऱ केवल 20 राज्यों ने रेरा के नियमों को अधिसूचित किया है।

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और पंजाब ने रेरा के नियमों के तहत  स्थानीय नियामक  नियुक्त किया है जबकि अन्य दूसरे राज्यों में अंतरिम नियामकों से काम चलाया जा रहा है। हरियाणा, तेलंगाना, ओडिसा, असम और केरल जैसे राज्यों में ऐसे किसी वेब पोर्टल का अता-पता तक नहीं है। वहीं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में वेब पोर्टल तो है लेकिन डेवलपर्स द्वारा अपलोड की गयी जानकारी इतनी कम है कि व्याहारिक रूप से इसका उपयोग नहीं है।

नियमों के तहत रेरा में रजिस्ट्रेशन कराए जाने के बाद ही प्रोजेक्ट बिक सकेंगे और उनके विज्ञापन प्रकाशिक किए जा सकेंगे। बिल्डर को प्रोजेक्ट से जुड़ी हर जानकारी रेरा को देने के साथ-साथ अपनी वेबसाइट पर भी डालनी होगी। साथ ही प्रोजेक्ट के लिए अलग से एस्क्रो अकाउंट भी बनाना होगा जिसमें घर खरीदारों से लिया गया 70 फीसदी पैसा रखना होगा। प्रॉपर्टी ब्रोकर भी रेरा के दायरे में आएंगे। नियमों के तहत बिल्डर को 5 साल तक प्रोजेक्ट की मरम्मत का जिम्मा उठाने का प्रावधान है। इसके अलावा बिल्डर लेट पेमेंट पर मनमाना जुर्माना भी नहीं वसूल सकते। बिल्डर की मर्जी से डील कैंसिल नहीं होगी और बिल्डर ओपन पार्किंग नहीं बेच सकेंगे। घर खरीदारों के साथ एकतरफा एग्रीमेंट नहीं बनेंगे। रेगुलेटर की बात नहीं मानने पर जुर्माना और जेल की सजा का प्रावधान भी है। बिल्डर पर प्रोजेक्ट की कीमत का 5 से 10 फीसदी तक जुर्माना लगाया जा सकता है।

लेकिन ये सभी प्रावधान केवल कागजों में सिमट कर रह गए हैं। वास्तविकता ये है कि रेरा के लागू होने के एक साल बाद भी कोई भी राज्य इसे लेकर गंभीर नहीं है।

अगर बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहां रेरा कानून लागू तो हो गया लेकिन आधे अधूरे तरीके से। रेगुलेटर से लेकर ट्रिब्यूनल तक सब कुछ अस्थायी है और घर खरीदार परेशान हैं। देश के बड़े रियल एस्टेट हब नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद के होने के चलते सबसे ज्यादा परेशान और बिल्डरों की ठगी के शिकार घर खरीदार भी यूपी में ही हैं। इसलिए यूपी में रेरा कानून का सही पालन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

क्योंकि रेरा कानून को लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों के उपर है, दूसरे राज्यों की तरह यूपी में भी इसमें बिल्डरों को कई तरह की छूट दे दी गई जिसके चलते बहुत से प्रोजेक्ट इसकी जद से बाहर हो गए। यूपी में रेरा लागू तो हुआ लेकिन ये टाइम लिमिट खत्म होने के बस एक हफ्ते पहले आनन-फानन में लागू किया गया। नतीजा बिल्डरों ने अपने प्रोजेक्ट की जो जानकारी डाली वो आधी अधूरी थी और गलत भी थी।

रेरा को लेकर यूपी सरकार का ढुलमुल रवैया सिर्फ कानून तक ही सीमित नहीं रहा। अभी तक यूपी में रेरा का प्रशासनिक ढांचा पूरी तरह अस्थायी है। स्थायी अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्ति कब होगी कोई नहीं जानता। शिकायतों के निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल बनना था जिसमें हाईकोर्ट के पूर्व जज और रियल एस्टेट सेक्टर में लंबा अनुभव रखने वाले लोग होने थे। लेकिन ये काम ट्रांसपोर्ट विभाग के ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। यूपी में अब तक रेरा के तहत 1981 शिकायतें दर्ज हुई हैं। ये संख्या देश भर में सबसे ज्यादा है । इनका समाधान 60 दिनों के अंदर होना था। लेकिन ज्यादातर शिकायतें महीनों से अटकी हुई हैं। यूपी में रेरा की वेबसाइट पर 3500 प्रोजेक्ट, 1250 डेवेलपर और 1320 एजेंट रजिस्टर्ड हैं। हालांकि जानकारियां अब भी पूरी नहीं हैं।

प्रॉपर्टी रिसर्च एजैंसी नाइट फ्रैंक ने व्हाइट पेपर जारी कर कहा है कि रेरा का मुख्य मकसद रियल एस्टेट मार्कीट के प्रति बायर्स के सैंटीमैंट में सुधार लाना था लेकिन अभी सैंटीमैंट में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि बिल्डरों की मनमानी पर नकेल कसने के लिए बनाए गए रेरा में काम बेहद धीमी गति से चल रहा है। घर खरीदारों को इंसाफ दिलाने के लिए इसमें तेजी लाने के साथ-साथ इसे ठीक तरह से लागू करने की जरूरत है।

—एपीएन ब्यूरो

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