Make In India के चलते भारत की सेनाओं के पास हथियारों की कमी, रिपोर्ट में दावा, जानिए भारत में सेनाओं के लिए हथियार खरीदने की प्रक्रिया के बारे में

भारत में निर्माण (Make In India) कार्यक्रम के तहत, 30 से 60 फीसदी तक रक्षा कलपुर्जे का निर्माण देश में होना होता है. हालांकि, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सैन्य खरीद कैसी है और इसे कहां से खरीदा जा रहा है.

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Make In India: भारत में हो रही हथियारों की कमी, वजह बनी Make In India नीति: रिपोर्ट
Make In India: भारत में हो रही हथियारों की कमी, वजह बनी Make In India नीति: रिपोर्ट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद केंद्र सरकार द्वारा भारत में निर्माण (Make In India) कार्यक्रम को लगातार तरजीह दी जा रही है. केंद्र सरकार द्वारा मोबाइल फोन से लेकर रक्षा क्षेत्र में हथियार बनाने तक पर जोर दिया जा रहा है.

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सरकार द्वारा अपनाई जा रही भारत में निर्माण नीति के चलते देश की तीनों सेनाएं सैन्य साजो-समान की कमी से जूझ रही हैं. केंद्र सरकार ने अगस्त में संसद में जानकारी दी थी कि उसने वर्ष 2020-21 से 1,83,778 करोड़ रुपये की सैन्य साजो-सामान की खरीद को आवश्यकता की स्वीकृति (एओएन) या सैद्धांतिक रूप से स्वीकृति प्रदान की है.

अधिकारियों का कहना है कि भारतीय थलसेना, नौसेना और वायुसेना पुराने पड़े हथियारों को बदलने के लिए जरूरी हथियारों का आयात नहीं कर पा रही है. हथियारों का आयात न होने की वजह से 2026 तक भारत के पास हेलिकॉप्टर्स की कमी हो सकती है और 2030 तक लड़ाकू विमानों की कमी हो सकती है.

भारत में निर्माण (Make In India) कार्यक्रम के तहत, 30 से 60 फीसदी तक रक्षा कलपुर्जे का निर्माण देश में होना होता है. हालांकि, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सैन्य खरीद कैसी है और इसे कहां से खरीदा जा रहा है. हालांकि, मेक इन इंडिया कार्यक्रम से पहले ऐसी कोई सीमा निर्धारित नहीं थी. भारत ने रक्षा खरीद की लागत कम करने के लिए घरेलू स्तर पर निर्माण का तंत्र प्रयोग किया.

हथियारों को खरीदने के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में भारत

देश में अधिक रोजगार पैदा करना और विदेशी मुद्रा को देश से बाहर जाने से रोकना मुख्य उद्देश्य के साथ भारत में निर्माण कार्यक्रम (Make in India) को शुरू किया गया था. लेकिन योजना के आठ साल बाद भी भारत तीनों सेनाओं के लिए हथियारों को खरीदने के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है. भारत आज भी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थानीय स्तर पर पर्याप्त हथियार नहीं बना पा रहा है इसके साथ ही सरकारी नियम आयात को रोक रहे हैं.

भारत में निर्माण की नीति को बढ़ावा देने के लिए पिछले दिनों रक्षा मंत्रालय ने कम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल और 14 हेलीकॉप्टर खरीदने से संबंधित सौदों के लिए जारी किये गये टेंडर को वापस लेने का फैसला किया. इन सब उपकरणों का निर्माण अब भारत में ही करने की योजना है.

वायु सेना की स्थिति सबसे खराब

भारतीय वायु सेना के पास हार्डवेयर की कमी सबसे ज्यादा है. अधिकारियों ने ब्लूमबर्ग से कहा कि 2030 तक, भारतीय वायु सेना के पास 30 से कम लड़ाकू स्क्वाड्रन (प्रत्येक स्क्वाड्रन में 16 से 18 लड़ाकू जेट होते है) हो सकते हैं, जो स्वीकृत 42 से काफी कम हैं. भारतीय वायुसेना के अनुसार उसको चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ लगती सीमाओं की पर्याप्त रूप से रक्षा करने के लिए 42 स्क्वाड्रन की आवश्यकता है. एक अधिकारी ने बताया कि 2030 तक भारतीय वायु सेना को लगभग आधा दर्जन स्क्वाड्रनों को रिटायर करना पड़ेगा.

एचएएल हर साल केवल आठ स्वदेशी तेजस लड़ाकू विमानों का उत्पादन कर सकती है

अधिकारियों के अनुसार, बेंगलुरु स्थित सरकारी कम्पनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड हर साल केवल आठ स्वदेशी तेजस लड़ाकू विमानों का उत्पादन कर सकती है, यानी लगभग आधा स्क्वाड्रन. हालांकि कम्पनी ने 2026 तक अपनी विनिर्माण क्षमता को दोगुना करने की योजना बनाई है. लेकिन यूक्रेन और रूस के मध्य जारी युद्ध के कारण आपूर्ति-शृंखला में हो रहे व्यवधान के कारण क्षमता के बढ़ने में ओर देरी हो सकती है.

रक्षा क्षेत्र में अन्य पहल

देश की रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए 2005 से ऑफसेट पॉलिसी को अपनाया जा रहा है. ऑफसेट पॉलिसी के तहत विदेशी रक्षा उत्पादन कंपनियों को 300 करोड़ रुपए से अधिक के सौदे का कम-से-कम 30 फीसदी भारत में खर्च करना अनिवार्य था. विदेशी कंपनियों को यह खर्च कलपुर्जों की खरीद, तकनीक का ट्रांसफर या अनुसंधान और विकास (Research & Development) इकाइयों की स्थापना में करना होता था.

ऑफसेट पॉलिसी के तहत यह सुनिश्चित किया जाता है कि भारत सरकार द्वारा रक्षा उपकरणों की खरीद पर तकनीक का ट्रांसफर का होना जरूरी है, ताकि देश में रक्षा उपकरणों के निर्माण को बढ़ावा मिल सके और विदेशी निवेश आ सके.

2005 में आई ऑफसेट पॉलिसी से अब तक के रक्षा सौदों की लागत में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है एवं भारत को विदेशी कंपनियों से सैन्य तकनीक हस्तांतरण के संबंध में कोई खास उपलब्धि प्राप्त नहीं हुई है.

नई रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया के तहत सशस्त्र बलों को ट्रांसपोर्ट विमान, हवा में ईंधन भरने वाले विमान (Tanker), हेलिकॉप्टर, सिम्युलेटर (Simulator) जैसी तात्कालिक जरूरत के रक्षा उपकरणों को लीज पर लेने की मंजूरी दी गई है

घरेलु उत्पादन की जरूरत क्यों?

विश्व का कोई भी विकासशील देश जब भी कोई रक्षा खरीद करता है तो वहां (खरीददार देश के पास) अक्सर औद्योगिक आधार और अनुसंधान एवं विकास सुविधाओं का अभाव होता है.

लेकिन भारत (विश्व का सबसे बड़ा हथियार खरीददार) जैसे बड़े देश जब भी रक्षा सौदा करते हैं तो वो अपनी ‘क्रय शक्ति’ का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं. इससे न सिर्फ सबसे कम कीमत को प्राप्त करने की कोशिश होती है बल्कि उत्पाद को उन्नत करने और अनुसंधान और विकास क्षमताओं के घरेलू निर्माण करने के लिये तकनीक के अधिग्रहण का प्रयास भी करते हैं.

कैग रिपोर्ट

कैग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2007 से 2018 के बीच सरकार ने कथित रूप से 46 ऑफसेट अनुबंधों पर हस्ताक्षर किये, जिसमें 66,427 करोड़ रुपए का निवेश किया गया था. हालांकि असल में निवेश केवल 8 फीसदी यानी 5,454 करोड़ का था. यह भी देखा गया कि एक भी ऐसा मामला नहीं था जिसमें किसी विदेशी विक्रेता ने भारतीय उद्योग को उच्च प्रौद्योगिकी हस्तांतरित की हो.

2014-2019 में देशी रक्षा उद्योग को मिले 1.96 लाख करोड़ के सौदे

नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के पांच साल में रक्षा मंत्रालय ने लाखों करोड़ रुपये के रक्षा सौदों पर मुहर लगाई है, लेकिन इसकी तुलना में देशी रक्षा कंपनियों के हिस्से में केवल 1.96 लाख करोड़ के ही रक्षा सौदे ही आए.

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