भारत के लिए 22 अक्तूबर काला दिवस है। साथ ही ये दिन बहुत खास भी है। 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान समर्थित कबीलियाइयों ने जम्मू और कश्मीर पर आक्रमण किया था। इसके बाद कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में आ गया था जिसे पीओके के नाम से जाना जाता है। इसलिए इसे काला दिवस के रूप में जाना जाता है।

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22 अक्टूबर 1947 ही वह दिन था जब करीब 2 हजार पठान कबायली लड़ाकों ने मुजफ्फराबाद में हमला बोल दिया। यहां महाराजा के सैनिक कुछ सैंकड़ों की संख्या में थे। जिन्हें कबायली लड़ाकों ने आसानी से हरा दिया और जमकर लूटपाट की। वहां उन्होंने दुकानें लूट लीं, घर जला दिए। गैर मुस्लिम आबादी वाले इलाके में कबीलियाइयों का कहर बरपा। यहां तक कि जो कलमा नहीं पढ़ सका उनको गोली मार दी गई थी। औरतों की इज्जत को तार-तरा किया गया। इसमें हिंदू, सिख, का लड़कियां अधिक थी।

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उस दौरान कबायली लड़ाके श्रीनगर तक आ गए थे फिर राजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय का वह एतिहासिक समझौता किया। जिसके बाद भारतीय सेना ने लड़ाकों को पीछे खदेड़ दिया।

22 अक्तूबर को इतने तांडव के बाद और पीओके हाथ से जाने के कारण इस दिन को काला दिवस के रूप में जाना जाता है।

खुशी का दिन

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इसी दिन भारत को महान स्वतंत्रता सेनानी मिला उनका नाम है अशफ़ाक़ उल्ला खां। इनका जन्म 22 अक्तूबर 1900 में शाहजहांपुर में हुआ था। भारत को आजादी दिलाने में इन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फांसी पर लटका कर मार दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल क तरह अशफ़ाक़ उल्ला खां भी उर्दू भाषा क बेहतरीन शायर थे।

अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए हथियारों की जरूरत थी। 8 अगस्त को बिस्मिल ने शाहजहांपुर में इसकी योजना बनाई। तब अशफाक ने कहा दोनों साथ ही इसे अंजाम देंगे। इसके बाद 9 अगस्त को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी समेत आठ लोगों ने मिलकर काकोरी के पास ट्रेन लूट ली। यह घटना इतिहास में काकोरी कांड के तौर पर दर्ज है। बिस्मिल के साथ इसमें अपना भी नाम आने पर अशफाक बेहद खुश हुए थे।

फांसी वाला दिन

फांसी वाले दिन 19 दिसम्बर 1927 को अशफ़ाक़ हमेशा की तरह सुबह उठे, शौच आदि से मुक्त हो कर स्नान किया। कुछ देर वज्रासन में बैठ  कुरान की आयतों को दोहराया और किताब बन्द करके उसे आँखों से चूमा। फिर अपने आप जाकर फांसी के तख्ते पर खड़े हो गये और कहा- “मेरे ये हाथ इन्सानी खून से नहीं रँगे। खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ होगा।” फिर अपने आप ही फन्दा गले में डाल लिया। अशफ़ाक़ की लाश  फैजाबाद जिला कारागार से शाहजहांपुर लायी जा रही थी। लखनऊ स्टेशन पर गाड़ी बदलते समय  कानपुर से बीमारी के बावजूद चलकर आये गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनकी लाश को अपना श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। पारसीशाह फोटोग्राफर से अशफ़ाक़ के शव का फोटो खिंचवाया और अशफ़ाक़ के परिवार जनों को यह हिदायत देकर कानपुर वापस चले गये कि शाहजहांपुर में इनका पक्का मकबरा जरूर बनवा देना, अगर रुपयों की जरूरत पड़े तो खत लिख देना मैं कानपुर से मनीआर्डर भेज दूँगा। अशफ़ाक़ की लाश को उनके पुश्तैनी मकान के सामने वाले बगीचे में दफ्ना दिया गया। उनकी मजार पर संगमरमर के पत्थर पर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की ही कही हुई ये पंक्तियाँ लिखवा दी गयीं।

“जिन्दगी वादे-फना तुझको मिलेगा ‘ हसरत’, तेरा जीना तेरी मरने की बदौलत होगी।”

उनकी इस शायरी को पढ़कर लगता है कि अशफ़ाक़ यह पहले से ही जानते थे कि उनकी शहादत के बाद भारत में लिबरल पार्टी यानी कांग्रेस ही पावर में आयेगी और उन जैसे आम तबके के बलिदानियों का कोई चर्चा नहीं होगा; सिर्फ़ शासकों के स्मृति-लेख ही सुरक्षित रखे जायेंगे। तभी तो उन्होंने ये क़ता कहकर वर्तमान हालात की भविष्य-वाणी बहुत पहले सन् 1927 में ही कर दी थी।

“जुबाने-हाल से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है, मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है? बहुत अफसोस होता है बड़ी तकलीफ होती है, शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपोंं का साया है।”

हम इसलिए आजाद हुए क्योंकि उन्होंने अपनी जान की कुर्बानी दी है। इस देश को अपनी जवानी दी है।

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