हिंदी में आधुनिक कविता के सशक्त हस्ताक्षर और वरिष्ठ कवि डॉ. केदारनाथ सिंह नहीं रहे।  सोमवार रात 9:10 बजे एम्स में उनका निधन हो गया। केदारनाथ सिंह को करीब डेढ़ माह पहले कोलकाता में निमोनिया हो गया था।

मैं जा रही हूं- उसने कहा

जाओ – मैंने उत्तर दिया

यह जानते हुए कि…जाना

हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है….

सिर्फ 4 पंक्तियों की यह कविता गहरे अर्थ समेटे हुए है।  केदारनाथ सिंह की मृत्यु यानी उनके जाने के बाद उनकी इस कविता की याद बरबस हो आती है ।  उनके ही शब्दों में कहें तो उनका जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है। साल 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गाँव में जन्मे  केदारनाथ सिंह ने प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही पाई थी। बाद में उन्होंने बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी में एमए और 1964 में पीएचडी की उपाधि हासिल की। पढाई के बाद गोरखपुर में उन्होंने कुछ दिन हिंदी पढ़ाई और जवाहर लाल विश्वविद्यालय से हिंदी भाषा विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए। लेकिन कविताओं के प्रति प्रेम उनमें छात्र जीवन से ही रहा। आज उनके ना रहने पर सोशल मीडिया पर संवेदनाओं की बाढ़ आ गई है…

केदारनाथ सिंह ‘तीसरा सप्तक’ के सहयोगी कवियों में से एक रहे । जटिल विषयों पर बेहद सरल और आम भाषा में लेखन, उनकी रचनाओं की विशेषता है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में शहर और गांव बराबर दिखते रहे। वो कहते भी थे कि मैंने जो गांव से अर्जित किया है, उसे साहित्य में खर्च कर रहा हूं। गांव में पैदा हुए केदारनाथ जी को शहर में आने और बसने के बाद भी गांव की स्मृतियां आजीवन रगों में बहते खून की तरह कविताओं में दौड़ती रहीं।  सहज ग्रामीण संवेदना उन्हें एक विशिष्ट काव्य-दृष्टि देती थी। इस काव्य-दृष्टि का ही कमाल था कि बरामदे में रखी हुई कुदाल पर एक शानदार कविता लिख सकते थे।

पर सवाल अब भी वहीं था
वहीं जहां उसे रखकर चला गया था माली
मेरे लिए सदी का सबसे अधिक कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्या हो कुदाल का
क्योंकि अंधेरा बढ़ता जा रहा था
और अंधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था
कुदाल का क़द
और अब उसे दरवाज़े पर छोड़ना
ख़तरनाक़ था
सड़क पर रख देना असंभव
मेरे घर में कुदाल के लिए ज़गह नहीं थी।’

केदार जी की कविता में यह धार लोकजीवन से उनके जुड़ाव की वजह में आई, जहां चीजों के साथ लोगों के संबंध बड़े रागात्मक होते हैं। मानसून की प्रथम बौछार के बाद जब पहली बार खेत में हल भेजा जाता है तो उसकी पूजा की जाती है। यही वे संस्कार हैं जो चकिया(बलिया) के गोबर से लीपे आंगन से दिल्ली के आधुनिक या उत्तर आधुनिक जीवन तक केदार जी का पीछा करते रहे। वे बार बार इस बात को दुहराते भी रहे कि मैं गाँव का आदमी हूँ और दिल्ली में रहते हुए भी एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता कि मैं गाँव का हूँ. यह गाँव का होना कोई मुहावरा नहीं है,बल्कि इसके विपरीत मेरे जीवन की एक लगाव-भरी सच्चाई है,जिसे मैं अनेक स्तरों पर जीता हूँ….. केदारनाथ सिंह ने अध्ययन के सिलसिले में एक लंबा वक्त बनारस में गुजारा. उनकी रचनाओं में इस शहर का साफ असर दिखता है. कुछ कविताओं में उन्होंने बनारस को अलग तरह से देखा….

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से 

साल 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा केदारनाथ सिंह की सेवाओं के लिए उन्हें साहित्य के सबसे बड़े सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उन्हें इसके अलावा साहित्य अकादमी पुरस्कार और व्यास सम्मान सहित कई सम्मानों से पुरस्कृत किया गया था. उनकी प्रमुख कविता संग्रहों में ‘अभी बिलकुल अभी’, ‘जमीन पक रही है’, ‘यहां से देखो’, ‘बाघ’, ‘अकाल में सारस’ और ‘उत्तर कबीर’ शामिल हैं. आलोचना संग्रहों में ‘कल्पना और छायावाद, मेरे समय के शब्द प्रमुख हैं। केदारनाथ सिंह के प्रमुख लेख और कहानियों में ‘मेरे समय के शब्द’, ‘कल्पना और छायावाद’, ‘हिंदी कविता बिंब विधान’ और ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ शामिल हैं.इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं। कविता पाठ के लिए दुनिया के अनेक देशों की यात्राएँ की। केदारनाथ जी अपने पीछे एक भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। आज जब हिंदी साहित्य अपने बदलाव के लिए बेचैन है, उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए बहुत बड़ा नुकसान है….

एपीएन परिवार की ओर से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि ….

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