लोकसभा सीटों के लिए हुए चुनाव को अगर 2019 का सेमीफाइनल माना जाए तो फिर बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बज गई है। साथ ही लगता है कि संभावित सियासी गठबंधन की नींव भी पड़ गई है। ये ठीक है कि उपचुनाव पर स्थानीय मुद्दों का असर ज्यादा रहता है, जैसा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद माना भी है। फिर भी गोरखपुर जैसे बीजेपी के मजबूत किले का ध्वस्त हो जाना कोई मामूली बात नहीं है।

गोरखपुर में 1989 के बाद से पहली बार कोई बीजेपी या गोरखनाथ मंदिर से जुड़े प्रत्याशी को हार मिली है। वो भी तब जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्वयं चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। क्षेत्र के विकास के लिए कई काम भी किए थे। वर्षों से बंद पड़ी  फर्टिलाइजर को दोबार चालू करने की घोषणा भी हुई थी।

1989 में गोरखनाथ मंदिर के महंत अवैद्यनाथ यहां से जीत कर संसद पहुंचे थे। फिर 1991 और 1996 में भी वो यहां से संसद पहुंचे। 1998 के चुनाव में महंत अवैद्यनाथ ने अपनी सीट अपने उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ को सौंप दी थी। तब से लगातार पांच बार योगी आदित्यनाथ वहां से जीतते आए थे। हर चुनाव में उनके जीत का अंतर बढ़ता ही जा रहा था। लेकिन इस बार ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा। ये योगी आदित्यनाथ के लिए बड़ा झटका है, क्योंकि गोरखपुर और योगी एक दूसरे के पर्याय माने जाते हैं। गोरखपुर ही नहीं, आस पास की कई सीटों पर भी योगी का प्रभाव देखने को मिलता है। हर चुनाव में योगी अपनी मर्जी से टिकट दिलवाते हैं और पार्टी की जीत में भी अहम भूमिका निभाते हैं।

हार के कारणों पर तो बीजेपी चिंतन मनन करेगी ही। लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी की अंतरूनी राजनीति भी पार्टी की इस दुर्दशा के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। ये ठीक है कि योगी के काम करने का तरीका अलग है। उन्होंने अपने सख्त रवैये से न सिर्फ अपराध पर नियंत्रण पाने की कोशिश की, बल्कि सत्ता में आते ही एंटी रोमियो स्क्वायड का गठन भी कर दिया। योगी के सत्ता में आने के बाद से अपराधियों के खिलाफ अभियान शुरू हो गया था। एक साल के कार्यकाल में दो हजार से ज्यादा मुठभेड़ की घटनाएं हुई हैं, जिसमें बड़ी संख्या में अपराधी मारे गए तो घायल भी हुए।

मोदी के काम करने के तौर तरीके से विरोधी दल के नेता तो नाराज थे ही। ऐसा लगता है उनके दल के कुछ नेताओं को भी उनकी शैली अच्छी नहीं लग रही थी। उप चुनाव के नतीजों के बाद विरोध के स्वर सुनाई भी देने लगे हैं। बीजेपी के पूर्व सांसद और आजमगढ़ के बाहुबली नेता रमाकांत यादव ने तो खुलेआम हार के लिए सीएम योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली को जिम्मेदार ठहरा दिया है। यही नहीं उन्होंने तो योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पार्टी के फैसले पर भी सवाल उठा दिए हैं। रमाकांत यादव का कहना है कि पूजा पाठ करने वाले योगी के बस की बात नहीं है मुख्यमंत्री का पद संभालना। हार के बाद मजबूत से मजबूत व्यक्ति के खिलाफ भी विरोध के स्वर उठना स्वभाविक है।

नतीजों ने यूपी के दो धूर विरोधी दलों को भी एक साथ ला दिया है, जो भविष्य में बनने वाले बड़े गठबंधन का आधार बन सकता है। इस उपचुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी का समर्थन किया था। जीत के बाद मीडिया के सामने आए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मायावती का आभार ही नहीं जताया, बल्कि उन्हें धन्यवाद देने खुद मायावती के घर भी चले गए। 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि सपा के किसी बड़े नेता ने मायावती से मुलाकात की है। वो भी उसके घर जाकर मिलने की बात तो बहुत दूर है। इससे साफ है कि आने वाले दिन बीजेपी के लिए जहां मुश्किल भरे हो सकता हैं तो विपक्ष के लिए उम्मीद भरे।

-ब्यूरो रिपोर्ट, एपीएन

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