भोपाल गैस त्रासदी: जानें उस रात आखिर हुआ क्या था?

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Bhopal Gas Tragedy
Bhopal Gas Tragedy

-Shweta Rai

2 दिसंबर की सर्द रात में 1 ,दो नहीं बल्कि हज़ार से ज्यादा लोग भोपाल के हमीदिया अस्पताल में थे। चारों ओर मौत का तांडव हो रहा था, डॉक्टरों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हुआ है और कैसे वे लोगों की जाने बचाए? इस दर्दनाक मंज़र की कहानी शुरू होती है 2 दिसंबर 1984 की उस सर्द रात को जब लोग चैन की नींद सो रहे थे, इस बात से बेखबर कि कुछ पलों में ही उनके शहर को मौत अपने आगोश में लेने के लिये निकल पड़ी है।

2 दिसंबर की रात्रि

भोपाल में अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में पिछले 36 दिनों से प्रोडक्शन का काम बंद पड़ था, लेकिन रोज़मर्रा का काम अभी भी जारी था। रोज की तरह फैक्ट्री के पाइपों को साफ करने के लिए उनमें पानी छोड़ दिया गया था, ये वो पाइप थे जो सीधे तौर पर टैंक नंबर 610 से जुड़े हुए थे। इस टैंक में 42 टन एमआईसी भरी हुई थी। एमआईसी यानि मिथेल आइसोसाइनाइट। अगर पानी इस एमआईसी से मिल जाता तो हादसे को कोई नहीं टाल सकता था। मेनटेनेंस ना होने की वजह से पाइप में लगे सेफ्टी वाल्व खराब हो चुके थे और पानी धीरे-धीरे टैंक नंबर 610 में जा रहा था।

रात 11.30 बजे, टैंक नंबर 610 में टैंक का तापमान लगातार बढ़ता ही जा रहा था लेकिन ये बताने वाले मीटर खराब पड़े थे और खर्च को कम करने के लिये कंपनी ने टैंक नंबर 610 के कूलिंग सिस्टम भी बंद करा दिए थे। 11 बजकर 35 मिनट पर कंट्रोल रूम में पहली बार तीखी गंध आनी शुरू हो गयी। रात 12 बजकर 05 मिनट, टैंक नंबर 610 में भरी पड़ी 42 टन एमआईसी बेकाबू हो गई, करीब 10 मीटर ऊंची गैस की परत टैंक नंबर 610 से निकल कर भोपाल की आबो-हवा में घुलने लगी। रात 12.30 बजे, गैस ने भोपाल को नींद से जगा दिया, लोगों की आंखे जलने लगीं। खांसी और उल्टी से लोग परेशान होने लगे और बमुश्किल सांस ले पा रहे थे तो वहीं कुछ लोग एक-एक सांस के बगैर दम तोड़ रहे थे।

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Bhopal Gas Tragedy

उस रात भोपाल का मंजर खौफनाक हो चला था। लोग घरों से निकल कर संड़कों और अस्पतालों की ओर भाग रहे थे। अस्पताल में भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे। उन्हें बचाने वाला कोई नहीं था, क्योंकि खुद डॉक्टर भी नहीं जानते थे कि वो इस ज़हरीली गैस का इलाज करें भी तो कैसे करें? बस ऐसा लग रहा था जैसे उस रात खुद मौत ने भोपाल के लिए जाल बुना था। यहां तक कि यूनियन कार्बाइड के डॉक्टरों को भी मिथेल आइसासाइनेट से बचाव का तरीका मालूम नहीं था। ज़हरीली गैस ने किसी को नहीं छोड़ा था, क्या जवान, क्या बूढ़े और क्या बच्चे, सभी मरीज एक के बाद एक दम तोड़ रहे थे।

उस रात के अगले दिन भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल के कंपाउंड में लाशों का ढेर लगने लगा। इन लाशों की फिक्र बस एक व्यक्ति के कंधों पर थी और वो थे डॉक्टर डी के सत्पथी। 3 दिसंबर 1984 के बाद जिन्हें सारा भोपाल एक नये नाम से जानने लगा था और वो नाम था डॉक्टर डेथ। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, इस शख्स ने गैस के शिकार हुए लगभग तीन हजार लाशों का पोस्टमॉर्टम किया था। डॉक्टर सत्पथी ने 3 दिसंबर को हताहत हुए करीब 876 शवों का पोस्टमॉर्टम एक बार में किया। रात के करीब डेढ़ बजे से लोगों का हॉस्पिटल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ था। शुरू में ये संख्या इक्का- दुक्का थी, लेकिन थोड़ी ही देर में ये बढ़कर दर्जनों, फिर सैकड़ों फिर हजारों में तब्दील हो गयी। तब कहीं जाकर सरकारी अमले को गैस त्रासदी की भीषणता का एहसास हुआ। हालात नियंत्रित करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल किया गया। मगर इस जहर के बारे में जाने बिना इलाज मुश्किल था। तब एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम।

बता दें कि सायनाइड एक ऐसा जहर है जिसे ईजाद करने वाला ही उसका स्वाद बताने के लिए जिंदा नहीं रहा। लेकिन, उस रात भोपाल की आबादी में सायनाइड की गैस घुल गई थी।

1969 में यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन ने यूनियन कार्बाइड आफ इंडिया लिमिटेड का प्लांट भोपाल में लगाया। यह कीटनाशक दवाइयां बनाने का प्लांट था। इसमें एमआईसी गैस यानि मिथाइल आइसोसाइनाइड गैस इस्तेमाल होती थी। लेकिन एमआईसी का उत्पादन यहां नहीं होता था, उसका आयात अमरीका से किया जाता था। वर्ष 1970 में इस कंपनी ने एक आवेदन दिया कि हमें मिथाइल आइसोसाइनाइड इसी कंपनी में उत्पादन करने का लाइसेंस दिया जाए। 1970 का यह आवेदन पांच वर्षों तक पड़ा रहा, लेकिन अक्टूबर 1975 में यह लाइसेंस इस कंपनी को केन्द्र सरकार द्वारा दे दिया गया। आइये आपको बताते हैं क्या है एमआईसी गैस?

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Bhopal Gas Tragedy

एमआईसी गैस साधारण गैस नहीं होती है, एमआईसी वह गैस है जिसका इस्तेमाल 2nd world war में किया गया था जो जिनेवा कंवैंशन से प्रतिबंधित थी और हिटलर ने इस गैस का इस्तेमाल गैस-चैम्बरों में किया था। इस गैस को लगाने वाली फैक्ट्री के लिए कुछ सावधानियां बरतने के नियम हैं।

कौन थी वो कंपनी, जिसने इतनी बड़ी मानव त्रासदी को जन्म दिया?

  • इस तरह की फैक्ट्री नगर की सीमा से कम से कम 20-25 किलोमीटर बाहर लगनी चाहिए लेकिन यह कंपनी जहां लगी वहां बहुत घनी आबादी थी, बड़ी-बड़ी कॉलोनियां इसके आस-पास बसी हुई थीं। इन सभी नियमों की अवेहलना की गयी।
  • नियम यह है कि यह गैस बड़े-बड़े टैंकों में नहीं रखी जाती है, छोटे-छोटे टैंकों में रखी जाती है और वे छोटे टैंक भी आधे खाली रखे जाते हैं कि अगर कभी पानी उस टैंक में चला जाए और गैस उफनने लगे तो वह जो आधा भरा हुआ टैंक है, वह गैस वहीं तक रह जाए, बाहर न छलके। उसके साथ खाली टैंक भी रखे जाते हैं। अगर गैस उफनने लगे तो गैस बराबर के टैंक में डाल दी जाए। इस टैंक का टैंप्रेचर जीरो डिग्री से 15 डिग्री रखा जाता है।

इन सभी मानकों और नियमों को कंपनी ने अनदेखा किया और इतनी बड़ी मानव त्रासदी का जन्म हुआ। इस भोपाल गैस त्रासदी में सरकार ने बहुत बाद में जाकर माना कि उस रात गैस हादसे में 3,787 लोग मारे गए थे, लेकिन अगर गैर सरकारी आंकड़ों की माने तो इस गैस कांड में लगभग 15 हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए थे। पूरा भोपाल गुस्से की आग में जल रहा था। तभी हादसे के तीन दिन बाद नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा जब भोपाल पहुंची। शांति की मसीहा मदर टेरेसा ने भोपाल के लोगों से जब कहा कि वो वारेन एंडरसन को माफ कर दें। लेकिन भोपाल के लोग कैसे अपने कातिल को माफ कर सकते थे ? वो कातिल जिसका इंतज़ार अब भोपाल को था, वो कातिल भोपाल तो आया लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार की मेहरबानी से बच कर निकल गया। और फिर कभी नहीं लौटा। मगर कौन था इसके लिए ज़िम्मेदार और क्या थी वो साज़िश?

सारी दुनिया उस शख्स का ठिकाना भी जानती थी, लेकिन फिर भी वो आज़ाद था, वारेन एंडरसन को सज़ा ना मिलना जख्म पर वो नमक था जिसकी चुभन को पीढ़ी दर पीढ़ी के लोग आज भी महसूस करते हैं। कहते हैं कि भारत से भागते हुए एंडरसन के चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था, वो कार में बैठा, हाथ हिलाया और चला गया। इसके बाद एंडरसन कभी हिंदुस्तान नहीं लौटा। क्यों एंडरसन को उस समय की तत्कालीन सरकार गिरफ्तार नहीं कर पायी और क्या थी उस मामले की पूरी कानूनी प्रक्रिया?

3 दिसंबर 1984 में मानव त्रासदी की सबसे बड़ी घटना भोपाल गैस कांड हुयी लेकिन इस सबके बावजूद इस कांड के सबसे बड़े आरोपी एंडरसन को सरकार गिरफ्तार क्यों नहीं कर पायी और वह किस तरह से आज़ाद रहा लेकिन उस घटना के बाद आज भी उसकी टीस और दर्द को भोपालवासी भुला नहीं पाए हैं। क्या भोपाल गैस के मुख्य अभियुक्त एंडरसन को गिरफ्तार करना इतना मुश्किल था? दरअसल कहा जाता है कि एंडरसन को गिरफ्तार करके वापस हिंदुस्तान लाने की कभी सही तरीके से कोशिश ही नहीं हुई, यहां तक कि गैस कांड के जो ज़िम्मेदार हिंदुस्तान में रहते हैं उन्हे भी बहुत सस्ते में छोड़ दिया गया। 15 हज़ार मौतों के बदले दी गई सिर्फ दो साल की सज़ा। हादसे से पहले जनसत्ता के पत्रकार केसरवानी ने अखबार में छपी अपनी एक रिपोर्ट के ज़रिए बहुत पहले ही ये चेतावनी दे दी थी कि यूनियन कार्बाइड की वजह से भोपाल एक ज्वालामुखी पर बैठा है।

राजकुमार केसवानी ने 16 जून, 1984 का लेख लिखा है और ये यह घटना दो और तीन दिसम्बर, 1984 की अर्धरात्रि को हुई यानि इस घटना से साढ़े पांच महीने पहले केसवानी ने लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’, लेख के कुछ अंश इस तरह से हैं। 5 अक्तूबर, 1982 मंगलवार का वह दिन, जब रात के अंधेरों में घिरकर बुधवार की शक्ल में तब्दील हो रहा था, तभी एमआईसी प्लांट पर काम कर रहे ऑपरेटर वाडेकर द्वारा वॉल्व खुलते ही पाइप लाइनों को जोड़ने वाली फिलिंज एक धमाके के साथ फूट पड़ी और जहरीला मिथाइल लावे की तरह उबल पड़ा। प्लांट पर काम कर रहे मजदूर अपनी जान बचाने को बदहवासी में बाहर की तरफ भागने लगे और खतरे की सूचना देता अपशकुनी सायरन अपनी मनहूस आवाज़ में गूंज उठा। इस दुर्घटना में जहां प्लांट के चार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए, वहीं दूसरी ओर भगदड़ के कारण कई लोगों को शारीरिक चोटें आईं और कुछ लोगों ने तो बिस्तर ही पकड़ लिया।”उन्होंने इस मसले पर अर्जुन सिंह की तत्कालीन सरकार को भी जगाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार था।

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इस दुर्घटना में क़रीब गैर सरकारी आकड़ों की माने तो लगभग 15 हज़ार लोगों की मौत हुईं थी और एक लाख से ज़्यादा लोग इस हादसे में बेघर, बीमार या फिर अपंग हो गये थे। वहीं इतनी बड़ी मानव त्रासदी के मामले के दोषियों को नाममात्र की सज़ा मिली। ‘जन कल्याणकारी सरकार’ कहने वाली कांग्रेस सरकार ने बिना ज़रूरी सुरक्षा शर्तों के इतने ख़तरनाक कारख़ाने को लगाने की इजाज़त दे दी। जब इस कारख़ाने ने सामान्य सुरक्षा व्यवस्थाओं पर भी ख़र्च में कटौती करके सारे सिस्टम बंद कर दिए तब भी सरकारी एजंसियों ने आंख मूंदना बेहतर समझा और जब गैस लीक हुई तो लोगों को मरने के लिए बेसहारा छोड़कर सरकार के आला अफसर और आला मंत्री अपनी जान बचाने दूर जा छिपे। भोपाल गैस कांड 2 और 3 की मध्यरात्रि को हुआ। फरवरी 1989 को सुप्रीम कोर्ट के सामने एक समझौते का मसविदा पेश किया।

7 दिसंबर, 1984 को यूनियन कार्बाइड के सीईओ वारेन एंडरसन को भोपाल में गिरफ्तार किया गया। इसके बाद एंडरसन 2000 डालर की जमानत देता है औऱ 6 घंटे बाद ही एंडरसन को छोड़ दिया जाता है । कहा ये भी जाता है कि एंडरसन को मध्यप्रदेश सरकार के विशेष विमान से दिल्ली भेजा गया। और वहां एक स्पेशल चार्टर्ड से एंडरसन को अमेरिका ले जाया जाता है। जो तत्तकालीन कांग्रेस सरकार पर सवाल खड़े करता है।

2-3 दिसंबर 1984 को भोपाल में हजारों की संख्या में लोग मरे, जब लोग अपने रिश्तेदारों को दफनाने से, उनका दाह संस्कार करने से फुरसत पाए, तो शुरू हुई कानूनी लड़ाई। अनेक संगठन बने गैस पीड़ितों के, उन्होंने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग अदालतों में मुकदमे डाले, केसेज दर्ज हुए। जबलपुर, भोपाल, दिल्ली में केस डाले गए। तो भारत सरकार को लगा कि इतने केसेज ये लोग अलग-अलग व्यक्तिगत तौर पर लड़ें, यह सही नहीं होगा। इस सोच के साथ एक एक्ट पारित हुआ- भोपाल गैस लीक डिजास्टर प्रोशेसिंग ऑफ क्लेम्स एक्ट, 1985। इस एक्ट को संसद ने सर्वसम्मति से पारित किया और सारे अधिकार केन्द्र सरकार ने ले लिए।

मई 1985 में भारत सरकार ने भोपाल गैस रिसाव अधिनियम, 1985 के तहत यूनियन कार्बाइड के साथ किसी भी कानूनी व्यवहार में खुद को पीड़ितों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। इस अधिनियम के तहत, भारत सरकार ने अमेरिका के जिला न्यायालय में $3 बिलियन के मुआवजे के लिए मुकदमा दायर किया। मई 1986 अमेरिकी न्यायाधीश जस्टिस कीनन ने यह कहते हुये इस मामले को भारतीय अदालतों में वापस भेजा कि अमेरिका में ना तो भारत से गवाह आ पाएंगे और ना ही स्पॉट चेकिंग ही हो पाएगी इसलिए न्याय के मद्देनजर सुनवाई भारत में ही हो।

दिसंबर 1987 भोपाल जिला न्यायालय के न्यायमूर्ति जस्टिस एम डब्ल्यू देव ने यूसीसी को 350 करोड़ रुपये की अंतरिम राहत देने का आदेश दिया। अप्रैल 1988 यूसीसी ने जबलपुर उच्च न्यायालय में अपील की। न्यायमूर्ति एस. के. सेठ ने आदेश को बरकरार रखा, लेकिन राहत राशि को घटाकर 250 करोड़ रुपये कर दी गई।

14 फरवरी, 1989 पांच साल की लम्बी कानूनी जंग के बाद भारत सरकार 470 मिलियन डॉलर के “पूर्ण और अंतिम” समझौते के लिए सहमत हुई तो वहीं यूसीसी और उसके अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामले वापस ले लिए गए। ये आउट ऑफ कोर्ट सेटेंलमेंट था। इसके लिए एक कॉन्ट्रैक्ट साइन किया गया था जिसकी वजह से इस समझौते की काफी आलोचना हुई। कॉन्ट्रैक्ट कहता है कि आपदा से पैदा होने वाली सभी तरह की देनदारी केवल भारत सरकार पर तय की जा सकती है और यूनियन कार्बाइड को केवल 470 मिलियन डॉलर तक ही उत्तरदायी ठहराया जाएगा। यानी criminal liability से भी यूनियन कार्बाइड कंपनी बच गयी हालांकि सेटेंलमेंट ऑर्डर को कई याचिकाओं के जरिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई औऱ तीन अहम मसलों को चुनौती याचिका में उठाया गया।

पहला, भविष्य के क्लेम पर रोक थी, ऐसे में अगर अनुवांशिक या genetic गड़बड़ियां पाई गई तो मुआवजा कैसे मिलेगा। दूसरा, कम मुआवजे का भी मामला था। तीसरा Reopener Clause नहीं था यानि की केस फिर नहीं खुल सकता है। ये न्याय के सिद्धांत के खिलाफ था। लेकिन इन सभी तर्कों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया और मामले में निपटान आदेश की वैधता को बरकरार रखा।

न्यायालय की राय थी कि समझौता अवैध नहीं है। समझौता केवल यूनियन कार्बाइड के दायित्व को सीमित करता है और यह किसी भी तरह से पीड़ितों को प्रभावित नहीं करता है क्योंकि अगर किसी भी मामले में मुआवजा अपर्याप्त पाया जाता है तो इस कमी को भारत संघ द्वारा पूरा किया जाना है। यानी ucc हलके में छूट गया और मुआवजे का भार भी भारत सरकार पर ही पड़ा।

4 मई 1989. UNION CARBIDE CORPORATION Vs UNION OF INDIA आदि के केस में मुआवजे पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। बेंच की अध्यक्षता तत्कालीन चीफ जस्टिस आर एस पाठक ने की थी। बेंच के अन्य सदस्य थे जस्टिस एमएन वेंकटचलैया, जस्टिस ईएस वेंकटरमैया, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा और जस्टिस एनडी ओझा। मुआवजे का फैसला देते हुए बेंच ने कहा कि पीड़ितों को तत्काल राहत देना न्यायिक और मानवीय कर्तव्य है। इसलिए बेंच ने मुआवजे की राशि पर ज्यादा मोलभाव नहीं किया क्योंकि देर काफी हो चुकी थी।

अक्टूबर 1991. सुप्रीम कोर्ट ने कॉन्ट्रैक्ट से आपराधिक प्रतिरक्षा या Criminal Liability को रद्द किया। यानि की अब UCC के अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो सकता था। फिर एंडरसन के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया गया औऱ यूनियन कार्बाइड के शेयर जब्त किए गए। सितंबर 1993 यूनियन कार्बाइड ने यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड में अपनी पूरी हिस्सेदारी बी.एम. खेतान समूह की कंपनी मैकलियोड रसेल इंडिया लिमिटेड को 290 करोड़ रुपये में बेच दी। 1999 पीड़ितों के संगठनों ने अमेरिका में न्यूयॉर्क की अदालत में राहत के लिए केस फाइल किया।

1989 में हुए समझौते के तहत यूनियन कार्बाइड ने 705 करोड़ रुपये का मुआवजा पीड़ितों के लिए मध्यप्रदेश सरकार को दिया था। जब भारत में मुआवज़ा राशि चुकायी गयी तो कहा जाता है कि यूनियन कार्बाईड कार्पोरेशन अमरीका ने अपने शेयर धारकों को बताया था कि इस समझौते के बदले में कंपनी पर बेहद मामूली वित्तीय भार आया है और वह वित्तीय भार था, मात्र 50 सेंट प्रति शेयर यानि आठ रुपए क्योंकि 1989 में डालर का मूल्य मात्र 16 रुपए था।

इस समझौते के लगभग 21 साल बाद केंद्र सरकार ने एक विशेष अनुमति याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर कर 7,728 करोड़ रुपये के मुआवजे का दावा किया। अप्रैल 2007 में सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एक बार फिर उन अपीलों को खारिज कर दिया, जिनमें सेटलमेंट फंड की पर्याप्तता पर बहस को फिर से खोलने की मांग की गई थी।
जून 2010 के आदेश और फैसले के तहत सी.जे.एम. ने 8 आरोपियों जिसमें से अब एक अब मृत है, उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304-ए, 336, 337 और 338 के तहत सजा सुनाई। भोपाल गैस त्रासदी के अदालत में चल रहे मामलों की गति काफी धीमी है। भोपाल गैस त्रासदी पीड़ित महिला उद्योग संगठन, भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉरमेशन एंड एक्शन गैस त्रासदी प्रभावितों की कानूनी लड़ाई लगातार लड़ रहे हैं। भोपाल गैस त्रासदी केस का असर बाद में भारतीय पर्यावरण कानूनों पर पड़ा इसके बाद कई पर्यावरण संबंधी कानून बने। प्रदूषण से पीड़ितों के लिए भी कानून बने।

  • Direct liability अब Absolute Liability में तब्दील हुआ
  • M.C Mehta v Union of India केस में इसका व्याख्यान किया गया है
  • जहरीले पदार्थ रखने वाले फैक्ट्रियों को अपने कर्मचारियों के प्रति पूरी जिम्मेदारी रखने का प्रावधान बना।
  • भोपाल केस polluter pay principle का सबसे बड़ा केस बना
  • और प्रदूषकों पर भारी जुर्माना लगाने का चलन शुरू हुआ
  • ग्रीन कोर्ट का चलन आगे चल कर शुरू हुआ औऱ NGT बना. फैक्ट्री कानून में बदलाव हुआ और कर्मचारियों के हित को सर्वोपरि रखा गया।

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