दारुल उलूम के Principal अरशद मदनी ने कहा- “नेहरू- गांधी भी दहशतगर्द थे”

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अगर वह गुलामी की जंजीर तोड़ते हैं तो हम ताली बजाते हैं। अगर यह दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे। शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे।

अफगानिस्तान (Afghanistan) में बंदूक की नोक पर सरकार चलाने वाला तालिबान (Taliban) देवबंद विचारधारा से प्रभावित है। यह संगठन देवबंद विचारधारा को ही मानता है। दारुल उलूम (Darul Uloom) भी देवबंद (Deoband) विचारधारा का फॉलोवर है। ऐसे में जब तालिबान पूरे अफगानिस्तान में तबाही मचा रहा है तो यह जानना बेहद जरूर है कि, दारुल उलूम की इसपर क्या राय है, क्योंकि तालिबान के साथ साथ दारुल उलूम भी चर्चा का विषय बना हुआ है।

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इसी तरह के कई सवाल दैनिक भास्कर ने अरशद मदनी (Maulana Arshad Madani) से किया है। मदनी ने भास्कर के सवालों का जवाब देते हुए विवाद भी खड़ा कर दिया है। अरशद मदनी ने कहा कि, गुलामी की जंजीरे तोड़ना अगर दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे। शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे।

अरशनद मदनी दारुल उलूम विचारधारा से इतने अधिक प्रभावित है कि, उन्होंने भारत की आजादी की तुलना तालिबानी आतंकियों से कर दी है।

उलेमा के इतिहास को किया याद

अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार आते ही दारुल उलूम की चर्चा होने लगी है। क्योंकि दोनों एक विचारधारा को मानते हैं। वह है देवबंद विचारधारा। दारुल उलूम और तालिबान का नाम जुड़ते देख Darul Uloom के Principal Maulana Arshad Madani ने भास्कर से कहा कि, तालिबान का नाम दारुल उलूम के साथ जोड़ा जा रहा है लेकिन हमारा उनके साथ कोई जुड़ाव नहीं है। अगर लोग इस तरह की बातें करते हैं तो यह एक जहालत की बातें हैं, नादानी की बातें हैं। इस तरह  की बातें करने वालों को क्या पता कि, उलेमा ने भारत की आजादी के लिए जो रोल अदा किया है उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।

इतिहास का जिक्र करते हुए मदनी कहते हैं, 1915 में तुर्की और जर्मनी की सहायता से मौलाना हजरत शेखुद्दीन ने अफगानिस्तान के अंदर अंग्रेजों की मुखालफत के लिए ‘आजाद हिंद’ नाम की भारत के लिए एक अस्थाई गवर्नमेंट बनाई थी। उस गवर्नमेंट में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को सदर, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली को उसका वजीर-ए-आजम और उबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री बनाया गया था। इन सबने अफगानिस्तान में जाकर काम किया। उस वक्त वहां, बहुत सारे अफगानी उलेमा के पीछे-पीछे चल पड़े।

मैं कई बार कह चुका हूं कि जो लोग खुद को देवबंदी मानते हैं यह वही लोग हैं जो शेखुद्दीन को मानते हैं और उनके वंशज हैं। कहने के लिए तो यह लोग खुद को देवबंदी विचारधारा के फॉलोअर्स कहते हैं लेकिन अफगानिस्तान में देवबंदी मदरसे भी तभी बने। इन लोगों ने कभी दारुल उलूम आकर कोई तालीम हासिल नहीं की। मैं पूछता हूं कि कौन सी गवर्नमेंट हैं जिसने अफगानियों को वीजा देकर हमारे यहां पढ़ने के लिए बुलाया।

शरिया कानून पर दी सफाई

जग जाहिर है अफगानिस्तान में शरिया कानून की आड़ में महिलाओं को शिकार बनाया जा रहा है। तालिबान के करतूतों के कारण शरिया कानून पर सवाल उठ रहें हैं। शरिया पर सवाल उठते देख मदनी ने भारत के शिक्षा क्षेत्रों पर रोशन डाली है। उन्होंने का कि, लोग कह रहे हैं कि अफगानिस्तान में शरिया कानून के तहत औरतों को पर्दे में रखा जा रहा है। मर्दों के साथ पढ़ने नहीं दिया जा रहा है। क्या हम भारत के शिक्षा क्षेत्र को भूल गए हैं। हमारे देश में ही कितने ऐसे यूनिवर्सिटी और कॉलेज हैं जो कोएड नहीं हैं। लड़कियों के अलग और लड़कों के लिए अलग कॉलेज हैं। तो कह दिया जाए कि यह सब भी शरिया कानून के तहत हुआ है।

भारत में 40,000 हजार कॉलेज हैं इसमें तकरीबन 10,000 लड़कियों के हैं। इनकी स्थापना शरिया कानून के तहत हुई है या इनकी बुनियाद तालिबान ने रखी है। शरिया कानून को महज बदनाम  किया जा रहा है।

महिलाओं को विरोध करने का बताया सलीका

अफगानिस्तान में महिलाएं तालिबान के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही हैं ऐसे में फिर सवाल खड़ा किया जा रहा है कि शरिया कानून के तहत महिलाओं को विरोध नहीं करना चाहिए। मदनी ने यहां पर भी शब्दों को साफ करते हुए कहा कि, महिलाएं विरोध कर सकती हैं लेकिन यहां पर कुछ बातों को खासा ख्याल रखना होता है जैसे कि, बिना पर्दे के बाहर नहीं निकल सकती हैं। पर्दा मतलब कोई बुर्का या ढीला ढाला कोई लिबास जिसके भितर औरत का जिस्म और उसका उतार-चढ़ाव दूसरे न देखें। उनका जमाल और हुस्न जाहिर न हो। लिपस्टिक, क्रीम न लगाएं और अपने जिस्म और हरकतों का इजहार न करें तो वह बाहर आकर विरोध कर सकती हैं। कुल मिलाकर पर्दादारी में बाहर आकर विरोध जायज है।

औरतों के मसलों में कोई दिलचस्पी नहीं है

महिलाओं को विरोध प्रदर्शन पर नसीहत देते हुए वे कहते हैं, मुझे औरतों के मसलों में पड़ना बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं उनसे दूर ही रहता हूं मैं न खबर को देखता हूं ना ही सोशल मीडिया का दीवाना हूं। गजब बात है मौलाना साहब पूरी नसीहत देने के बाद कहते हैं कि मुझे औरतों के मसलों में कोई दिलचस्पी नहीं है।

नेहरु और गांधी की तुलना तालिबान से की

दैनिक भास्कर से बात करते हुए अरशद मदनी इतना बहक गए कि उन्होंने भारत की आजादी और तालिबान में फर्क करना जरूरी नहीं समझा। तालिबान को दहशतगर्द कहने पर मानो उनका गुस्सा फूट पड़ा।

वो कहते हैं, “हम किसी को दहशतगर्द नहीं मानते। तालिबानी भी दहशतगर्द नहीं हैं। अगर तालिबान गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद हो रहे हैं और तो इसे दहशतगर्दी नहीं कहेंगे। आजादी सबका हक है। अगर वह गुलामी की जंजीर तोड़ते हैं तो हम ताली बजाते हैं। अगर यह दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे। शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे।”

वे सारे लोग जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी वे सारे दहशतगर्द हैं। दूसरी बात फतवे को लेकर लोगों की समझ नहीं है। फतवे का मतलब सिर्फ और सिर्फ इतना है कि कोई हमसे जब पूछता है कि इस हरकत या मसले पर इस्लाम का हुक्म क्या है तो हम उसके सवाल का बस जवाब देते हैं। फतवे किसी को पाबंद नहीं बनाते। मानना न मानना आपकी मर्जी।

पहले उन्हें वहां ठीक से राज तो करने दो

तालिबान की क्रूरता से मुंह फेरते हुए अरशद मदनी कहते हैं, “मीडिया क्रूरता- क्रूरता चिल्ला रही है। पहले उन्हें वहां आजादी से राज तो करने दिया जाए। वे तो अभी तक सरकार का गठन भी नहीं कर पाए हैं।”

तालिबान देश की जनता के साथ अभी क्या सलूक कर रहा है इस बात पर कोई राय न पेश करते हुए मौलाना साहब कहते हैं कि, अभी राय पेश करना सही नहीं होगा। वहां हर शख्स का मान, उसकी इज्जत और हक महफूज होता है तो फिर हम कहेंगे कि वह बेहतरीन हुकूमत है। अगर इस पर तालिबानी सरकार खरी नहीं उतरती तो हम कहेंगे हमारा उनसे कोई ताल्लुक नहीं।

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