Mohammed Rafi Birthday Special ‘न फनकार तुझसा तेरे बाद आया, मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया’

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Mohammed Rafi: मखमली आवाज के फनकार मोहम्मद रफी अगर आज हमारे बीच होते तो वह अपना 97वां जन्मदिन मना रहे होते। सुर और गायकी को अपने गले से साधने वाले रफी साहब की अनोमल आवाज ने आज के ही दिन यानी 24 दिसबंर 1924 को पहली बार दुनिया में किलकारी भरी थी।

बुल्लेशाह और बाबा फरीद की धरती से ताल्लुक रखने वाले शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफी का जन्म पंजाब के अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। साधारण परिवार और उस पर संगीत से दूर-दूर तक कोई लगाव न होने के बावजूद मोहम्मद रफी ने गायकी में जो मुकाम हासिल किया वो बेमिसाल है।

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रफी साहब ने इस बात की तस्दीक खुद उर्दू के मकबूल रिसाले ‘शमां’ में की। ‘शमां’ में छपे लेख में वो खुद बताते हैं, ‘मेरा घराना मजहबपरस्त था। गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था। मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत ही दीन-मजहब को मानने वाले इंसान थे। उनका ज्यादा वक्त यादे-इलाही में गुजरता था। मैंने 7 साल की उम्र में ही गुनगुनाना तो शुरू कर दिया था लेकिन यह सब मैं वालिद साहब से छिप-छिप कर किया करता था। दरअसल, मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तर्बियत एक फकीर से मिली थी। पंजाबी में ‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’ गीत गाकर वह फकीर को दावते-हक दिया करता था। मैं भी उसके पीछे गुनगुनाता हुआ गांव से दूर निकल जाता था’।

Mohammed Rafi का परिवार साल 1935 में रोज़ी-रोटी की तलाश में पंजाब से लाहौर आ गया

करीब 11 साल कोटला सुल्तान सिंह में गुजारने के बाद रफी साहब का परिवार साल 1935 में रोज़ी-रोटी की तलाश में लाहौर आ गया। गांव में फकीर के साथ लगी गायकी की लत ने रफी साहब का लाहौर में भी पीछा नहीं छोड़ा। उनकी गायकी को सबसे पहले नोटिस करने वाले थे उनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके दोस्त। हुनर को परख चुके बड़े भाई ने रफी को बाक़ायदा संगीत की तालीम दिलवाई।

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रफी साहब ने कई उस्तादों से रियाज की बारीकियों को सीखा। इनमें अब्दुल वाहिद खान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और उस्ताद गुलाम अली खां जैसे बड़े दिग्गजों ने रफी के गले को निखारा। उस्तादों की सरपरस्ती में गीत-संगीत के रियाज ने रफी की गायकी को इतना मुकम्मल बना दिया कि वो आगे चलकर मुश्किल से मुश्किल गाने में उनके काम आयी।

महज 17 साल की उम्र में रियाज और गायकी को मुकम्मल कर चुके मोहम्मद रफी ने अपना पहला नगमा रिकॉर्ड कराया साल 1941 में। यह एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ थी, जो साल 1944 में रिलीज हुई। फिल्म ‘गुल बलोच’ में संगीत था श्याम सुंदर का और गीत के बोल थे, ‘सोनिये नी, हीरिये ने’। इस तरह गीत की दुनिया में दाखिल हो चुके रफी ने साल 1945 में रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘गांव की गोरी’ में पहली बार हिंदी में गीत गाया।

रफी साहब जब बंबई में दाखिल हुए, तो उस वक्त नौशाद भी फिल्मी दुनिया में पैर जमा रहे थे

उस्तादों से मिली वाहवाही और श्रोताओं से मिले प्यार ने मोहम्मद रफी को समझा दिया कि उनका करियर बंबई (मुंबई) में उनकी बाट जोह रहा है। लिहाजा रफी साहब सुरीला गला और हारमोनियम लिए लाहौर से बंबई की ओर चल दिए। किस्मत का खेल देखिये, जब रफी साहब बंबई में दाखिल हुए तो उस वक्त संगीतकार नौशाद साहब भी फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे।

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रफी साहब ने लाहौर से नौशाद साहब के वालिद का सिफारिशी खत ले लिया था, खत को लिए वो सीधे नौशाद से मिले। खत के मजमून से नौशाद साहब ने रफी का दर्द समझ लिया। शुरुआत में नौशाद ने रफी को गाने के लिए कोरस मंडली में शामिल किया। कोरस का मतलब होता है कि मुख्य गायक के साथ कुछ लोग समूह में सहायक के तौर पर गीत गाते हैं।

जब नौशाद साहब को रफी पर भरोसा हो गया तब उन्होंने फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने के लिए उन्हें मौका दिया। मोहम्मद रफी को हिंदी सिनेमा में पहचान मिली फिल्म निर्देशक महबूब खान की फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ से। साल 1946 में रिलीज हुई इस फिल्म में संगीत दिया था नौशाद ने और गीत के बोले थे ‘तेरा खिलौना टूटा बालक तेरा खिलौना टूटा’।

रफी साहब ने भारत के साथ जिंदगी का राब्ता रखा और बशीरन को तलाक दे दिया

रफी साहब का निकाह 13 साल की उम्र में उनके चाचा की बेटी बशीरन बेगम से हुई। लेकिन कुछ सालों के बाद बशीरन से उनका तलाक हो गया। क्योंकि जब साल 1947 में देश का बंटवारा हुआ तो बशीरन ने रफी साहब को पाकिस्तान चलने के लिए कहा लेकिन रफी साहब ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया।

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मोहम्मद रफी ने भारत के साथ जिंदगी का राब्ता रखा और बशीरन को तलाक दे दिया। उसके बाद 20 साल की उम्र में रफी साहब ने बिलकिस के साथ दूसरा निकाह किया, जिनसे उनके तीन बेटे खालिद, हामिद और शाहिद और तीन बेटियां परवीन अहमद, नसरीन अहमद और यास्मीन अहमद हुईं। रफी साहब के दो बेटों खालिद और हामिद का इंतकाल हो चुका है।

साल 1947 में हिदुस्तान आजाद हुआ और दूसरी ओर मोहम्मद रफी भी बंबई फिल्म इंडस्ट्री में बतौर गायक अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। लेकिन देश में मोहम्मद रफी का नाम उस वक्त गूंजा जब देश महात्मा गांधी की हत्या की त्रासदी से गुजर रहा था।

रफी साहब के गीत को सुनकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी रो पड़े

दरअसल 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में एक उन्मादी ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। मशहूर गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने बापू की याद में एक गीत लिखा ‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’। इस गीत को संगीतबद्ध किया हुस्नलाल भगतराम बातिश ने और इसे स्वरबद्ध किया मोहम्मद रफी ने। रफी की आवाज में यह गीत चार भागों में रिलीज हुआ।

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कहते हैं कि जब इस गीत को प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सुना तो उनकी आंखों में आंसू आ गये। पंडित नेहरू ने गीत सुनने के बाद मोहम्मद रफी को दिल्ली स्थित अपने तीनमूर्ति आवास पर बुलाया और उनसे अपने सामने वो गीत फिर से गाने की फरमाइश की।

बताते हैं कि नेहरू मोहम्मद रफी के गीत से इतने मुतास्सिर हुए कि 15 अगस्त के दिन उन्होंने रफी साहब को रजत पदक देकर सम्मानित किया। उस बारे में रफी साहब ने पूरी जिंदगी कहा कि उन्हें पूरी दुनिया में कई सम्मान और पुरस्कार मिले लेकिन नेहरू द्वारा दिए गया वो पदक उनके लिए सबसे बड़ा और असल सम्मान था।

मोहम्मद रफी के 1948 के गीत ‘ये जिंदगी के मेले’ ने बंबई सिनेमा पट्टी में हलचल मचा दी

साल 1948 मोहम्मद रफी के लिए एक भाग्यशाली साल रहा। बापू की याद में उनका गाया हुआ गीत ‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’ लोगों की जुबान पर ही था कि उसी साल वाडिया मूवीटोन ने एक फिल्म बनाई ‘मेला’। इस फिल्म में शकील बदायूनी की कलम से निकला एक गीत “ये जिंदगी के मेले” ने बंबई सिनेमा पट्टी में हलचल मचा दी। इस गीत को भी संगीत से नौशाद ने संवारा था।

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इसके बाद तो मोहम्मद रफी के सामने गीतों की लाइन लग गई। म्यूजिक डायरेक्टर नौशाद और मोहम्मद रफी की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के इतने अमर गीत दिये हैं कि जिन्हें बता पाना बेहद मुश्किल है। नौशाद और रफी की जोड़ी ने ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीजा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘बाबुल’ जैसी अनेक शानदार फिल्में हिंदी सिनेमा को दीं।

साल 1951 में सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्म ‘बैजू-बावरा’ के गीत ‘ओ दुनिया के रखवाले’ को शास्त्रीय संगीत का सबसे ऊंचा पैमाना माना जाता है। शकील बदायूनी के लिखे इस गीत को संगीतबद्ध किया था नौशाद ने। कहते हैं कि इस गीत की रिकॉर्डिंग के वक्त मोहम्मद रफी को स्वर इतना ऊंचा उठाना पड़ा था कि गर्दन छीलने के कारण उनके मुंह से खून तक निकल आया।

रफी के गाये गीत आज भी हमारे दिल-ओ-दिमाग पर दस्तक देते रहते हैं

रफी ने रूमानियत, देशभक्ति, भजन और कव्वाली को इस तरह से गाया कि वो आज भी हमारे दिल-ओ-दिमाग पर दस्तक देते रहते हैं। रफी ने जो देशभक्ति के गीत गाये, मसलन ‘कर चले हम फिदा’, ‘जट्टा पगड़ी संभाल’, ‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’, ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, ‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’ आज भी अमर हैं और सदियों तक सुने जाएंगे।

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वहीं अगर भजन या भक्तिगीतों की बात करें तो उनमें ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’, ‘मन रे तू काहे न धीर धरे’, ‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’, ‘जय रघुनंदन जय सियाराम’, ‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’, ‘सुख के सब साथी दुख में न कोय’, ‘रामचंद्र कह गये सिया के ऐसा कलयुग आयेगा’ प्रमुख हैं।

40 से लेकर 70 तक के दशक में मोहम्मद रफी ने नौशाद, सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र, रोशन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैयर, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रवींद्र जैन, इक़बाल क़ुरैशी, ग़ुलाम हैदर, बाबुल, जीएस कोहली, वसंत देसाई, एस एन त्रिपाठी, सज्जाद हुसैन, पंडित रविशंकर, दत्ताराम, एन दत्ता, उषा खन्ना, बप्पी लाहिरी, रवि, आरडी बर्मन, और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे दग्गज संगीत निर्देशकों की धुनों को अपनी आवाज से शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया।

मोहम्मद रफी ने कभी पैसों के लिए नहीं गाया

मोहम्मद रफी ने कभी पैसों के लिए नहीं गाया। जबकि बंबई सिनेमा इंडस्ट्री का यह दस्तूर रहा है कि ‘पैसा ज्यादा-काम कम’। इस दस्तूर को धता बताते हुए रफी साहब ने कभी फिल्म के प्रोड्यूसर से पैसे के बारे में कोई पूछताछ नहीं की। शर्मीले स्वभाव के रफी साहब को जो जितना दे देता, वो उसे खुशी से रख लेते थे।

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रफी साहब ने ता-जिंदगी गीत-संगीत को पैसों से नहीं तौला। यही कारण था कि रफी साहब और लता मंगेशकर के बीच इसी पैसे के चक्कर में सालों तक बातचीत नहीं हुई। दरअसल दोनों में विवाद तब शुरू हुआ जब लताजी ने गीतों की रॉयल्टी में गायकों को भी हिस्सा देने की मांग की। लता जी के समर्थन में मुकेश, मन्ना डे, तलत महमूद और किशोर दा थे वहीं रफी साहब का मानना था कि जब गायक ने एक बार गाने के पैसे ले लिए तो फिर उसे पैसे या रॉयल्टी से मतलब नहीं होना चाहिए।

लता मंगेशकर रफी साहब की इस बात से खिलाफ थीं और यही कारण था कि दोनों के बीच में मनमुटाव था। रही सही कसर साल 1961 में आयी फिल्म ‘माया’ के गीत ‘तस्वीर तेरी दिल में’ ने पूरी कर दी। गीत के अंतरे को लेकर लता और रफी में ठन गई। विवाद इतना बढ़ा कि मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के बीच कई सालों तक बातचीत बंद रही। कई सालों के बाद संगीतकार जयकिशन ने दोनों में सुलह कराई।

70 के दशक में ‘हाजी’ हो गये रफी साहब ने गाना छोड़ दिया था

70 के दशक में किशोर कुमार के उभरने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। साल 1971 में रफी साहब हज पर गए। वहां से लौटने के बाद कुछ मौलवियों ने उन्हें मशवरा दिया कि अब आप ‘हाजी’ हो गए हैं। लिहाजा आपके लिए फ़िल्मों में गाना गुनाह है। चूंकि रफी साहब पांच वक्त के नमाजी थे सो उन्होंने यह बात मान ली और फिल्मों में गाने से तौबा कर ली।

मोहम्मद रफी
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रफी साहब के सिनेमा इंडस्ट्री से हटते ही किशोर कुमार को मौके मिलने लगे और उनकी गाड़ी चल पड़ी। वैसे किशोर कुमार भी भारतीय सिनेमा के महान गायकों में से एक हैं। इस बात से कभी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन रफी साहब का गीतों से दूर होना, सिनेमा प्रेमियों को रास नहीं आया। इसी बात को ध्यान में रखते हुए नौशाद ने रफी साहब को समझाया, ‘अल्लाह की नजर में आपका गीत ही इबादत है। उसे छोड़ना दानिशमंदी नहीं’।

आखिरकार नौशाद साहब के दबाव में रफी साहब ने सिनेमा गायकी में दोबारा कदम रखा और वापसी के बाद ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘यादों की बारात’, ‘अभिमान’, बैराग’, ‘लोफ़र’, ‘लैला मजनू’, ‘सरगम’, ‘दोस्ताना’, ‘अदालत’, ‘अमर, अकबर, एंथनी’, ‘कुर्बानी और ‘क़र्ज़’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए सदाबहार गीत गाए।

मोहम्मद रफी को 6 बार फिल्म फेयर अवार्ड मिला

मोहम्म्द रफी को उनके गीतों के लिए 16 बार फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नॉमिनेट किया गया। जिसमें से 6 बार उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। रफी साहब को ‘चौदहवीं का चांद हो तुम’, ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को’, ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’, ‘बहारों फूल बरसाओ’, ‘दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’, ‘क्या हुआ तेरा वादा’ गीत के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगर का फ़िल्म फेयर अवॉर्ड मिला। फिल्म ‘नील कमल’ के गीत ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ के लिए रफी साहब को नेशनल अवार्ड मिला था। उन्हें भारत सरकार ने साल 1965 में पद्मश्री से नवाजा।

मोहम्मद रफी
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दुखद बात यह है कि भारत सरकार ने पद्मश्री के अलावा रफी साहब को आज तक कोई सम्मान नहीं दिया, जबकि वो भी लता मंगेशकर की तरह ‘भारत रत्न’ के हकदार हैं। ‘भारत रत्न’ तो छोड़िये सरकार ने आज तक उन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से भी सम्मानित नहीं किया।

जबकि उनसे बाद के कई गायकों को सरकार इस सम्मान से सम्मानित कर चुकी है। 31 जुलाई, 1980 के दिन से जुहू के कब्रिस्तान में सो रहे सदाबहार फनकार मोहम्मद रफी का जब इंतकाल हुआ तो उस दिन बंबई में मूसलाधार बारिश हो रही थी। उसके बावजूद उनके जनाजे में करीब 10 हजार लोग शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मोहम्मद रफी के एहतेराम में दो दिन के राष्ट्रीय शोक का एलान किया था।

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