Birthday Special: जब Dilip Kumar की शिकायत पर Nehru ने हटा दिया था अपने सूचना मंत्री को

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Dilip Kumar
Dilip Kumar

Birthday Special: साल 1960 में Dilip kumar ने एक फिल्म बनाई। नाम था ‘गंगा-जमुना’। इस फिल्म में वो हीरो थे और हिरोइन थीं उस जमाने की जानीमनी अभिनेत्री बैजयंती माला। फिल्म का निर्देशन नितिन बोस ने किया था और इस फिल्म में संगीत दिया था नौशाद ने।

याद करिये शकील बदायुनी के लिखे वो गीत जिन्हें लता मंगेशकर ने अपनी आवाज में गाया था, ‘ढूंढो-ढूंढो रे साजना ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला’ या फिर ‘दो हंसो का जोड़ा बिछड़ गयो रे, गजब भयो रामा, जुलम भयो रे’। इसी फिल्म में शकील बदायुनी ने एक औऱ जबरदस्त गीत लिखा था। जिसे आज भी 15 अगस्त या फिर 26 जनवरी के दिन अक्सर सुना जाता है। वो गीत है हेमंत कुमार की आवाज में ‘इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के’।

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दिलीप कुमार ने फिल्म ‘गंगा-जमुना’ का निर्माण पूरे मन से किया और उन्हें उम्मीद थी कि सिनेमाघरों में दर्शकों को यह फिल्म बहुत पसंद आयेगी। लेकिन दिलीप साहब की उम्मीद उस समय धरी की धरी रह गईं, जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास करने से मना कर दिया। दिलीप कुमार ने सेंसर बोर्ड के इतने चक्कर लगाये की उनके जूते घिस गये लेकिन बोर्ड पर उसका कोई असर नहीं हुआ।

दरअसल जब आप 60 के दशक में झाकेंगे तो उस जमाने में पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार में सबसे अड़ियल मंत्री थे सूचना एवं प्रसारण विभाग में। मंत्री का नाम था बालकृष्ण विश्वनाथ केसकर (बीवी केसकर)। महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण बीवी केसकर, जो साल 1952 से 1962 के बीच नेहरू सरकार में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री थे।

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केसकर को लगता था कि भारतीय संगीत अंग्रेजों और मुसलमानों की गुलाम हो चुकी है तो उसे आजादी दिलाने के लिए मंत्री केसकर सुबह-शाम भजन सुना करते थे। उन्होंने तय किया कि वो पूरे देश को शास्त्रीय संगीत और भजन सुनाएंगे। मंत्री बीवी केसकर ने आदेश दिया कि रेडियो पर हिंदी फिल्म संगीत, क्रिकेट कमेंट्री और गिटार, हारमोनियम, तबले जैसे वाद्य यंत्रों पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया जाए।

सेंसर बोर्ड को हिदायत दी गई की केवल भक्ति फिल्मों को बिना किसी कांटछांट के पास की जाए और बाकि जैसे की शकील बदायुनी या उन जैसों का लिखा कोई गीत फिल्मों में आये तो फिल्म में इतने कट लगा दें कि फिल्म का मूल तत्व ही मर जाए। सूचना मंत्री केसकर के आदेशानुसार सेंसर बोर्ड ने दिलीप साहब की फिल्म ‘गंगा-जमुना’ पर हिंसा और अश्लीलता का आरोप लगाते हुए 250 जगह अपनी कैंची मार दी।

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दिलीप कुमार हक्के-बक्के होकर देखते रह गये। दिलीप कुमार को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। बहुत परेशान थे तभी एक दिन सदाबहार अभिनेता देवानंद से टकरा गये। देव साहब ने फिल्म ‘गंगा-जमुना’ के बारे में पूछा तो दिलीप कुमार ने सारा हाल सुनाया। देव साहब ने तुरंत सलाह दी कि सीधे दिल्ली जाओ ओर नेहरू जी से मिलो। उनसे सारा किस्सा बताओ।

दिलीप कुमार ने कहा कि पंडित जी (नेहरू) के पास मेरे लिए इतना समय होगा कि मैं अपनी बात उनसे कह सकूं। देवानंद ने कहा, एकदम होगा। मिले तो जाकर एक बार। अगर न मिलें तो वापस आ जाना। वैसे भी तुम्हारे पास रास्ता भी क्या है। देवानंद की बात मानकर दिलीप कुमार सीधे दिल्ली पहुंचे। पहले इंदिरा गांधी से मुलाकात की और उन्हें पूरी बात समझाते हुए प्रधानमंत्री नेहरू से मिलवाने की गुजारिश की। इंदिरा जी ने वादा किया कि वो 15 मिनट का समय मांगकर नेहरू जी से दिलीप कुमार की मुलाकात करवा देंगी।

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अगले दिन दिल्ली के तीनमूर्ति भवन में मेज के इस पार दिलीप कुमार और उस पार नेहरू जी। नेहरू जी भी दिलीप कुमार के अभिनय के बड़े मुरीद थे। पूछा कि कैसे आना हुआ। दिलीप कुमार ने फिल्म ‘गंगा-जमुना’ को लेकर सेंसर बोर्ड के व्यवहार की तल्ख शिकायत नेहरू जी से की। नेहरू जी ने दिलीप कुमार की पूरी बात सुनी और तुरंत बिना किसी कांटछाट के फिल्म ‘गंगा-जमुना’ के रिलीज का आदेश दे दिया।

यही नहीं दिलीप कुमार की शिकायत का असर रहा कि साल 1962 में फिल्म ‘गंगा-जमुना’ वन पीस में सिनेमाघरों में पहुंची और साल 1962 में बीवी केसकर सूचना मंत्रालय से सीधे अपने घर पुणे पहुंच गये। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिलीप कुमार की बातों को इतनी गंभीरता से लिया कि अपने सूचना-प्रसारण मंत्री की छुट्टी कर दी।

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यह था दिलीप कुमार का जलवा। वैसे दिलीप कुमार भी जवाहर लाल नेहरू का बहुत सम्मान किया करते थे। दिलीप कुमार अक्सर कहा करते थे कि वो अपनी ज़िंदगी में दो लोगों से सर्वाधिक प्रभावित रहे। पहले तो उनके पिता मोहम्मद सरवर खान थे, जिन्हें वो सम्मान के साथ ‘आग़ा जी’ कहा करते थे और दूसरे जवाहरलाल नेहरू। दिलीप कुमार अपने पिता और नेहरू को अपना नायक और आदर्श मानते थे।

साल 1962 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नेहरू ने दिलीप कुमार से मुंबई में चुनाव लड़ रहे वीके कृष्ण मेनन के पक्ष में प्रचार करने के लिए कहा। जिसे दिलीप कुमार ने नेहरू का आदेश माना और कृष्ण मेनन के पक्ष में जमकर प्रचार किया। जिसकी वजह से वीके कृष्ण मेनन ने जेबी कृपलानी को उस चुनाव में हरा दिया था।

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दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के अजीम-ओ-शान बादशाह थे। रूपहले पर्दे पर उनकी अदाकारी देखकर तो कई मर्तबा लिजेंड शब्द भी छोटा लगने लगता है। दिलीप कुमार एक्टिंग के एक मुकम्मल इंस्टीट्यूट थे। इंतकाल के दशकों पहले उन्होंने अदाकारी को घर के किसी ताखे पर सहेज कर रख दिया था लेकिन उनकी फिल्मों की खुशबू आज भी रजनीगंधा की तरह हर तरह बिखरी हुई है।

अब बात करते हैं उस दौर की जब दिलीप कुमार का कोई वजूद नहीं था। अविभाजित भारत के पेशावर शहर में एक पठान की गोद में यूसुफ खान ने 11 दिसंबर 1922 को अपनी आंखें खोली। यूसुफ खान के अब्बा मोहम्मद सरवर खान फलों का व्यापार करते थे औऱ यूसुफ खान के जन्म के बाद बंबई में क्रॉफर्ड मार्केट में आकर बिजनेस जमाने लगे।

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वैसे पेशावर शहर की तासीर भी बड़ी गजब की है, केवल दिलीप साहब ही नहीं बल्कि कपूर खानदान भी उसी शहर की देन है। दीवान बसेसर नाथ के परिवार में जन्में पृथ्वीराज कपूर और उनके बेटे राज कपूर ने हिंदी सिनेमा की बन रही इमारत में नींव की ईंट का काम किया है, ठीक दिलीप कुमार की तरह।

दिलीप कुमार यानी असल जिंदगी में यूसुफ खान को 22 साल की उम्र में सबसे पहला ब्रेक बांबे टॉकिज की मालकिन और साल 1970 में पहली बार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड पाने वाली अभिनेत्री देविका रानी ने दिया। हिमांशु राय बाम्बे टॉकिज के मालिक थे, जिनका साल 1940 में देहांत हो गया था।

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हिमांशु राय के निधन के बाद देविका रानी बांबे टॉकीज को चलाने के लिए पति के दो दोस्तों अमिय चक्रवर्ती और सशाधर मुखर्जी के भरोसे हो गईं। सशाधर मुखर्जी जानेमाने अभिनेता अशोक कुमार के जीजा और अभिनेत्री काजोल के दादा थे।

हिमांशु राय की मौत के बाद देविका रानी के साथ सशाधर मुखर्जी का मामला कुछ समय के बाद ही गड़बड़ होने लगा। नतीजतन सशाधर मुखर्जी ने देविका रानी की बांबे टॉकिज को छोड़ दिया और अपना फिल्मिस्तान स्टूडियो बना लिया। ठीक उसी समय फिल्म ‘किस्मत’ को लेकर अशोक कुमार और बांबे टॉकिज के अमिय चक्रवर्ती में झगड़ा हो गय। अशोक कुमार ने भी बांबे टॉकीज छोड़ दिया था। अशोक कुमार उस जमाने के सुपरहीट हीरो थे और उनका बांबे टॉकीज छोड़ना देविका रानी के लिए बड़ा झटका था।

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उस दौर में अशोक कुमार बांबे टॉकिज से हजार रुपए प्रतिमाह लिया करते थे। खैर, अशोक कुमार के बांबे टॉकीज छोड़ने कारण ही यूसुफ खान की एंट्री होती है।

एक दिन यूसुफ खान चर्च गेट पर खड़े थे तभी उनको एक परिचित डॉ मसानी दिखे। यूसुफ खान ने उनसे कहा कि वो काम की तलाश कर रहे हैं, अगर हो सके तो वो उनकी मदद करें। चूंकि डॉ मसानी यूसुफ खान के पिता को बहुत अच्छे से जानते थे। इसलिए वो उन्हें लेकर सीधे बांबे टॉकीज की मालकिन देविका रानी के पास गये।

देविका रानी ने यूसुफ खान के बारे में सब जानने के बाद पूछा क्या आप उर्दू जानते हैं। यूसुफ खान ने ‘हां’ में गर्दन हिलाकर जवाब दिया। उसके बाद देविका रानी ने अगला सवाल दागा, सिगरेट पीते हैं। यूसुफ खान ने कहा, ‘नहीं’। अंत में देविका रानी ने पूछा कि फिल्मों में एक्टिंग करेंगे। यूसुफ खान ने कहा, ‘हां’।

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इसके बाद देविका रानी ने फौरन अपने सहयोगी अमिय चक्रवर्ती को बुलाया और कहा कि यूसुफ खान को 1250 रुपये प्रतिमाह के वेतन पर दो साल के लिए एक्टिंग की नौकरी पर रख लो। उस जमाने में 1250 रुपये बड़ी रकम हुआ करती थी। अब सोचिए न उस जमाने में राज कपूर को केदार शर्मा के यहां बतौर असिस्टेंट सिर्फ 170 रुपये महीने मिला करते थे।

अगले दिन यूसुफ खान बांबे स्टूडियो पहुंचे एक्टिंग की नौकरी करने तो देविका रानी ने उनसे कहा कि यूसुफ खान नाम नहीं चलेगा, इसे बदलना होगा। देविका रानी ने यूसुफ खान के सामने तीन नाम रखे और किसी एक को चुनने का विकल्प दिया। पहला जहांगीर, दूसरा वासुदेव और तीसरा दिलीप कुमार।

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यूसुफ खान ने दूसरे विकल्प वासुदेव को तुरंत खारिज कर दिया। उन्हें जहांगीर जंच रहा था लेकिन देविका रानी ने दिलीप कुमार पर जोर दिया और इस तरह यूसुफ खान बन गये दिलीप कुमार। दरअसल देविका रानी को दिलीप कुमार इसलिए पसंद था क्योंकि यह अशोक कुमार से कुछ-कुछ मिलता-जुलता था।

साल 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ सिनेमाघरों में रिलीज हुई। फिल्म तो उतनी नहीं चली लेकिन नये-नवेले दिलीप कुमार को दर्शकों ने खुब पसंद किया और इस तरह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दरवाजे दिलीप कुमार के लिए खुल गये। फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ के निर्देशक थे अमिय चक्रवर्ती।

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फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ के बाद साल 1947 यानी हमारे आजादी के साल दिलीप कुमार की दूसरी फिल्म रिलीज हुई ‘जुगनू’ और इस फिल्म की सफलता ने दिलीप कुमार को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। उसके बाद तो ‘शहीद’ (साल-1948), ‘अंदाज’ (साल-1949), ‘देवदास’ (साल-1955), ‘आजाद’ (साल-1955), ‘नया दौर’ (साल-1957), ‘मधुमति’ (साल-1958), ‘कोहिनूर’ (साल-1960), ‘मुगले आजम’ (साल-1960), ‘गंगा-जमुना’ (साल-1961), ‘राम और श्याम’ (साल-1967), ‘गोपी’ (साल-1970), ‘क्रांति’ (साल-1981), ‘शक्ति’ (साल-1982), ‘मशाल’ (साल-1984), ‘सौदागर’ (साल-1991) और ‘किला’ (साल-1998) तक चले दिलीप कुमार के इस फिल्मी सफरनामें में कुल 63 फिल्में दर्ज हुईं। इतनी कम फिल्में करने के बाद भी दिलीप कुमार ने हिंदी सिनेमा को अमर कर दिया।

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कितना दिलचस्प है न असल जिंदगी के यूसुफ खान यानी दिलीप कुमार ने पूरे जीवन में सिर्फ एक बार फिल्म ‘मुगले आजम’ में ‘सलीम’ के किरदार में मुस्लिम रोल किया है। वैसे दिलीप कुमार के महान कलाकार बनने के पीछे देविका रानी, नितिन बोस, एसयू सन्नी, महबूब खान, के आसिफ, रमेश सहगल, बिमल रॉय, बीआर चोपड़ा, सुभाष घई जैसे कई फिल्मी हस्तियों का हाथ था, जिन्हें हमें कभी नहीं भूलना चाहिए। 

दिलीप कुमार को फिल्म ‘दाग’ (साल-1953), ‘आजाद’ (साल-1955), ‘देवदास’ (साल-1956), ‘नया दौर’ (साल-1957), ‘कोहिनूर’ (साल-1960), ‘लीडर’ (साल-1964), ‘राम और श्याम’ (साल-1967) और ‘शक्ति’ (साल-1982) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का आठ बार फिल्मफेयर अवार्ड मिला है।

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भारत सरकार ने साल 1995 में दिलीप कुमार को ‘दादा साहेब फाल्के सम्मान’ से सम्मानित किया। इसके अलावा साल 1997 में पाकिस्तान सरकार ने अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से दिलीप साहब को सम्मानित किया। जब पाकिस्तान सरकार ने दिलीप कुमार को ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से सम्मानित करने की घोषणा की तो मुंबई में शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे ने इसका जमकर विरोध किया।

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ये वही बाला साहेब ठाकरे थे, जो कभी दिलीप कुमार के साथ अपनी शाम बीयर की घूंट से रंगीन किया करते थे। बाला साहब के विरोध का स्वर उस समय ठंडा हो गया जब दिलीप कुमार के पक्ष में अटल बिहारी वाजपेयी आ खड़े हुए। वाजपेयी ने दिलीप साहब से कहा कि उन्हें जरूर पाकिस्तान से सम्मान लेना चाहिए क्योंकि जिस तरह कला की कोई सीमा नहीं होती। उसी तरह कलाकारों की भी कोई सीमा नहीं होती है। भारत सरकार ने साल 1991 में पद्मभूषण और साल 2016 में पद्म विभूषण से दिलीप कुमार को सम्मानित किया।

दिलीप कुमार की 5 बेस्ट फिल्में-

वैसे तो दिलीप कुमार की अदाकारी को इन 5 फिल्मों में समेट पाना सूरज को दीया दिखाने के बराबर होगा। दिलीप कुमार की सफल फिल्मों की फेहरिश्त में से इन 5 का चुनाव करना भी अपने आप में बड़ा भारी काम है, लेकिन कम से कम दर्शकों को अगर दिलीप कुमार की अदाकारी को थोड़ा-बहुत भी समझना है तो यह फिल्में उनकी मदद कर सकती है न कि दिलीप कुमार के एक्टिंग को समेटती हैं। 

देवदास (1955) : दिलीप कुमार को ट्रेजडी किंग क्यों कहा जाता है, इसे समझने के लिए बिमल रॉय की फिल्म  ‘देवदास’ दर्शकों को जरूर देखनी चाहिए। बांग्ला साहित्य के महान कथाकार शरतचंद्र के लिखे उपन्यास को दिलीप कुमार ने सिनेमा के पर्दे पर जीवंत कर दिया है। इस फिल्म में साहिर लुधियानवी का लिखा एक ‘गीत जिसे तू कबूल कर ले वो सदा कहां से लाऊं, तेरे दिल को जो लुभा ले वो अदा कहां से लाऊं’, लता मंगेशकर की आवाज में यह गीत आज भी कानों में मिश्री सा घुल जाता है।

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नया दौर (1957) : आजादी के बाद पंडित नेहरू की अगुवाई में देश का नवनिर्माण चल रहा था। आधुनीकीकरण और मशीनीकरण का दौर पूरी रफ्तार से हिदोस्तान की तस्वीर बदल रहा था। लेकिन वही मशीने कामगार हाथों से काम छीन रही थीं। इंसान तेजी से बेरोजगार हो रहा था। दिलीप कुमार की यह फिल्म इसी समस्या पर आधारित है। इस फिल्म में भी साहिर लुधियानवी की कलम से एक और शानदार गीत निकला। ‘उड़े जब-जब जुल्फें तेरी, कंवारियों का दिल मचले जिन्द मेरिये’ इस गीत को स्वर दिया था मोहम्मद रफी और आशा भोसले ने।

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मुगल-ए-आजम (1960) : महान निर्देशक के. आसिफ की फिल्म भारतीय सिनेमा की शान कही जाती है। हर पहलू से नायाब इस फिल्म का सेट, कॉस्ट्यूम, डॉयलॉग्स, गीत-संगीत सब कुछ आज भी मन मोह लेता है। भारतीय सिनेमा के दिग्गज कलाकार पृथ्वीराज कपूर शहंशाह अकबर को चोला पहने सलीम के तौर पर दिलीप कुमार को अदाकारी में गजब का लोहा देते हैं। दिलीप साहब ने शहजादा सलीम के किरदार में ऐसी जान फूंकी कि सदियों तक मुगले आजम का सलीम सिनेमा के सुनहरी यादों में दर्ज रहेगा। इस फिल्म का यह गीत ‘तेरी महफ़िल में किस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे, घड़ी भर को तेरे नज़दीक आकर हम भी देखेंगे- अजी हां हम भी देखेंगे’ शमशाद बेगम और लता मंगेशकर ने जिस तरह से गाया है, आज के दौर में खोजने से भी गीत की वह मिठास नहीं मिलेगी।

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गंगा-जमुना (1961) : इस फिल्म में हीरो होने के साथ दिलीप कुमार निर्माता भी थे। दो भाईयों के बीच टकराव की कहानी पर बनी थी। इसमें एक भाई डाकू बन जाता है, जबकि दूसरा पुलिस अधिकारी। दिलीप साहब ने इस फिल्म में डाकू का रोल निभाया था, यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। शकील बदायूनी के लिखे इस फिल्म के वो गीत जिन्हें लता मंगेशकर ने अपनी आवाज में गाया, ‘ढूंढो-ढूंढो रे साजना ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला’ या फिर ‘दो हंसो का जोड़ा बिछड़ गयो रे, गजब भयो रामा, जुलम भयो रे’ आज भी रूमानियत और दर्द के अनमोल गीत हैं। इसी फिल्म में शकील बदायनू ने एक औऱ जबरदस्त गीत लिखा था, जिसे आज भी 15 अगस्त या फिर 26 जनवरी के दिन अक्सर सुना जाता है। वो गीत है हेमंत कुमार की आवाज में ‘इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के’।

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राम और श्याम (1967) : अगर आपको लगता है कि कॉमेडी करना ‘ट्रेजेडी किंग’ दिलीप साहब के बूते के बाहर की बात थी तो इस फिल्म को जरूर देखें, सारे भ्रम दूर हो जाएंगे। ‘राम और श्याम’ में दिलीप कुमार ने न केवल दर्शकों को पेटफाड़ू हंसाया है, बल्कि इस फिल्म के फाइट सीन उस दौर के सबसे उम्दा सीन में शुमार होते थे। इस फिल्म में मोहम्मद रफी ने शकील बदायुनी के लिखे ‘आज की रात मेरे, दिल की सलामी ले ले, कल तेरी बज़्म से दीवाना चला जाएगा, शम्मा रहे जाएगी परवाना चला जाएगा’ गीत को क्या शानदार गाया है।

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दिलीप कुमार की इमेज हिंदी सिनेमा के कैनवास पर ‘लार्जर दैन लाइफ’ नजर आती है। अदाकारी की किसी भी सीमा में उन्हें बांध पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकीन है। दिलीप कुमार अदाकारी के बारे में अपनी बायोग्राफी ‘दिलीप कुमार : द सब्‍सटेंस एंड द शैडो’ में एक जगह लिखते हैं, “यह बहुत आसान है। तुम बस वह करो जो उस दी गई परिस्थिति में तुम खुद करते।” भारतीय सिनेमा का यह मार्लन ब्रैंडो आज भी जुहू के कब्रिस्तान लेटा आराम फरमा रहा है और बड़ी ही शिद्दत से रूपहले पर्दे को निहार रहा है।

हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे,

बहारें हमको ढूंढेगी, न जाने हम कहां होंगे!!

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