अनुसूचित जाति और जनजाति कानून की कुछ धाराओं में फेरबदल करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश के कई शहरों में शुरू हुए दलित प्रदर्शनों के बीच केंद्र सरकार ने सोमवार (2 अप्रैल) को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। अपनी याचिका में केंद्र ने कहा है कि कोर्ट यह नहीं कह सकता हैं कि क़ानून का स्वरूप कैसा हों क्योंकि क़ानून बनाने का अधिकार संसद के पास हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कानून कमजोर हो गया है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश के कई हिस्सों में दलित सड़कों पर उतर आए। उनकी मांग है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को वापस लिया जाए। उधर, केंद्र ने भी सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी। अपनी याचिका में केंद्र ने दलील दी है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लोगों में कानून का डर कम होगा, जिससे इसके उल्लंघन के और मामले सामने आ सकते हैं। केंद्र ने कहा कि सभी आपराधिक मामलों में सामान्य तौर पर एफआईआर दर्ज की जाती है ऐसे में डीएसपी स्तर के अधिकारी की जांच के बाद एफआईआर दर्ज करने का कोई प्रावधान नही है। केंद्र का कहना है कि ये आदेश न्याय अनुकूल नही है।

सरकार ने कहा है कि जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया हैं उसमें सरकार पक्षकार नहीं थी। सरकार ने कहा है कि कोर्ट यह नहीं कह सकता है कि क़ानून का स्वरूप कैसा हो क्योंकि क़ानून बनाने का अधिकार संसद के पास हैं। साथ ही किसी भी क़ानून को सख़्त बनाने का अधिकार भी संसद के पास ही हैं।

सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट केवल तीन आधारों पर कानून को रद्द कर सकता है। पहला अगर मौलिक अधिकार का हनन हों दूसरा गलत क़ानून बनाया गया हो और तीसरा अगर कोई क़ानून बनाने का अधिकार संसद के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता हो।

सरकार की यह भी दलील हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला SC-ST समुदाय के संविधान के तहत दिए गए अनुच्छेद 21 के तहत जीने के मौलिक अधिकार से वंचित करेगा। सरकार ने कहा कि SC-ST के खिलाफ अपराध लगातार जारी है और तथ्य बताते हैं कि कानून के लागू करने में कमजोरी है ना कि इसका दुरुपयोग हो रहा है।

केंद्र ने याचिका पर जल्द सुनवाई की मांगा की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को खारिज कर दिया। उधर इस मामले में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। याचिका में सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी एक्ट पर दिए गए फैसल को रद्द करने की मांग की है।

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