फाइनेंस अधिनियम में ट्रिब्यूनल और राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत में नियुक्ति के प्रावधान को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पुराने नियमों के तहत ही नियुक्ति करने का आदेश दिया है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील सीएस सुंदरम द्वारा दिये गए सुझाव को भी मान लिया है। याचिका में फाइनेंस अधिनियम, 2017 को चुनौती दी थी।

फाइनेंस अधिनियम, 2017 के तहत केंद्र सरकार को ट्रिब्यूनल और राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत के चेयरमैन, सदस्य, और विशेषज्ञ की नियुक्ति का अधिकार दिया गया है। इस मामले में एक रिटायर IAS गोकुल पटनायक की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल किया गया थी। अर्जी में एक्ट की धारा 177, 182 और 189 को चुनौती दी गई थी। इसके तहत ट्रिब्यूनल, अपीली ट्रिब्यूनल और आयोग को खारिज करने की मांग किया गया थी। याचिका में कहा गया था कि इस एक्ट के तहत संसद के बजाय कार्यपालिका को आयोग के सदस्य और चेयरपर्सन की योग्यता तय करने का अधिकार दे दिया गया है। मौजूदा एक्ट में नियम को हल्का करने की कोशिश की गई है और इसके तहत योग्यता से लेकर नियुक्ति और चेयरपर्सन और सदस्य को हटाने तक का अधिकार कार्यपालिका को दे दिया गया है। कार्यपालिका को इसका अधिकार दे दिया गया है कि किसकी नियुक्ति हो सकती है। उसका वेतन तय करने का अधिकार भी उसे दे दिया गया है साथ ही उनके भत्ते आदि कैसे बढ़ेंगे इसे तय करने का भी अधिकार होगा। इसके अलावा उन्हें इस्तीफा दिलाने और हटाने का भी अधिकार दिया गया है।

याचिका में कहा गया था कि कानूनी सिद्धांत के मुताबिक कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का अधिकार बंटा हुआ है। असल में संसद के पास चेयरपर्सन की नियुक्ति का अधिकार है लेकिन मौजूदा एक्ट में नियम को हल्का करने की कोशिश की गई है और इसके तहत योग्यता से लेकर नियुक्ति और चेयरपर्सन और सदस्य को हटाने तक का अधिकार कार्यपालिका को दे दिया गया है। जिसे न्यायिक क्षेत्र का अनुभव नहीं है उसे आयोग का चेयरपर्सन बनाया जा सकता है। इसके लिए ना तो ट्रेनिंग और ना ही किसी अनुभव की बात की गई है। राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में नियुक्ति के लिए भी सारे अधिकार सरकार के पास होंगे और यह सीधे-सीधे कार्यपालिका का दखल है और इस वजह से यह असंवैधानिक है। केंद्र को इसके तहत अधिकार दिया गया है कि वह नियुक्ति करे जबकि कानूनी सिद्धांत के तहत अधिकारों का बंटवारा किया गया है।

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