भ्रष्ट शासन तंत्र पर तंज कसते हुए पाठकों को गुदगुदाता है ‘तबादला’ उपन्यास

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वास्तविकता कैसे हास्य का रूप ले लेती है। इसे व्यंग्यकारों से बेहतर कोई नहीं जान सकता है।‘तबादला’ लेखक विभूतिनारायण राय का वह उपन्यास है जो पाठकों को गुदगुदाते हुए भारतीय नौकरशाही में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार को उजागर करता है। साहित्यिक तबका ‘तबादला’ को श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ सरीखा बताता है लेकिन दोनों ही रचनाएं अपने-अपने समय और स्थान के मुताबिक भिन्न और प्रासंगिक हैं। उपन्यास सरकारी नौकरी में होने वाले तबादले पर केंद्रित है। कम शब्दों में कहें तो सरकारी नौकर किस तरह से अपने तबादले करवाने और रुकवाने की जुगत भिड़ाते हैं और कैसे यह एक उद्योग में तब्दील हो चुका है यह इसी बारे में है।

आम आदमी की नजर में आज भी सरकारी नौकरी की परिभाषा यही है कि आपको कुछ नहीं करना है। इसी परिभाषा के अनुरूप सरकारी कर्मी व्यवहार करते हैं और इसी तरह के लोग मिलकर सरकारी दफ्तर में कामचोरी, लापरवाही का माहौल बनाते हैं और भ्रष्टाचार का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। इसी परिवेश में ही तबादला उद्योग विकसित हुआ है। यहां एक सरकारी पद की अहमियत इस बात से तय होती है कि उस पर रहकर कितनी बड़ी राशि तक का भ्रष्टाचार किया जा सकता है। इसी चलते इस पद के लिए प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। इसी प्रतिस्पर्धा का नतीजा है यह तबादले का धंधा। जिसमें ऊपर राजनेताओं से लेकर नीचे चपरासी तक सबकी जेबें गरम होती हैं।

उपन्यास में कमलाकांत वर्मा और बटुकचंद उपाध्याय के बीच लोकनिर्माण विभाग के प्रांतीय खंड में अधिशासी अभियंता बनने की होड़ है। वो भी इसलिए कि कुंभ होने वाला है और यह मौका अपनी जेब भरने का सुनहरा अवसर लेकर आया है। उपन्यास में कमलाकांत जो शुरुआत में वांछित पद पर काबिज होता है, अपने गुट के सभी लोगों की मीटिंग बुलाता है। मीटिंग की वजह उसका आया तबादले का आदेश है। यहां लेखक ने ऑफिस की गुटबाजी, बाबू संस्कृति,चमचागिरी और पत्रकारिता के नाम पर हो रही दलाली पर जमकर तंज कसा है।

कमलाकांत अपने तबादले की खबर लगते ही लखनऊ रवाना हो जाते हैं। इस बीच बटुकचंद ऑफिस आकर अपना पदभार ग्रहण करते हैं। इस पद को पाने के लिए उन्होंने क्या तिकड़म भिड़ाई थी इसका जिक्र भी लेखक चुटकीले अंदाज में करते हैं। लेखक बताते हैं कि सरकारी महकमों में सत्ता परिवर्तन होता है तो कैसे माहौल बदल जाता है। लोगों की निष्ठा भी कुर्सी पर बैठे आदमी के साथ बदल जाती है। बटुकचंद को पता लगते देर नहीं लगती कि कमलाकांत लखनऊ पहुंचे हुए हैं। इस बीच वे भी लखनऊ की राह पकड़ते हैं।

सूबे की राजधानी तबादला उद्योग का मुख्य कार्यालय है। जहां एक ओर कमलाकांत अपने विभाग के मंत्री के पास पहुंच रिश्वत का मोलभाव कर मामला तय करते हैं और ट्रांसफर रुकवाते हैं तो वहीं बटुकचंद एक कार्यकर्तारूपी दलाल के जरिए मिनी मुख्यमंत्री भाभी जी, जिनकी पहुंच सीधे सीएम तक है, तक पहुंचते हैं। बटुकचंद भी भाभी जी से रिश्वत की रकम तय कर विदा हो जाते हैं। मंत्री-मुख्यमंत्रियों तक पहुंच बनाने में ये दोनों अफसर जो तिकड़म लगाते हैं वो भी लेखक ने दिलचस्प तरीके से बताई है और कमाल के किरदारों को गढ़ा है।

संक्षेप में कहें तबादला पूरी शासन व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार का एक बयान है। जो पाठक को हंसाने के साथ साथ सोचने पर भी विवश कर देता है।

किताब के बारे में…

लेखक-विभूतिनारायण राय
पेज संख्या- 168
प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य- 250 रुपये (पेपरबैक)

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