सत्ता की सनक कैसे क्रूरता में बदल जाती है बताता है ‘कत्लगाह’

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सत्ता की सनक जब सवार होती है तो वह इतनी क्रूर हो जाती है कि अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती और फिर वहशीपन की हर हद को पार कर जाती है। यहां तक कि एक देश की फौज अपने ही नागरिकों का नरसंहार करने लगती है। इसी वहशीपन के बारे में बताता है उपन्यास ‘कत्लगाह’‘कत्लगाह’ लेखक रॉबर्ट पेन के उपन्यास The Tortured And The Damned का हिंदी अनुवाद है। यह उपन्यास बांग्लादेशियों के दर्द की दास्तां कहता है कि कैसे पाकिस्तानी फौज ने बंगालियों का नरसंहार करते हुए अनगिनत बलात्कारों और यातनाओं को अंजाम दिया था। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश निर्माण की पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह उपन्यास बहुत गहराई से घटनाओं के बारे में बताता है।

दरअसल दिसंबर 1970 में पाकिस्तान में हुए चुनाव में शेख मुजीब-उर-रहमान की आवामी लीग को बड़ी जीत मिली थी लेकिन पाकिस्तानी फौज और जुल्फिकार अली भुट्टो नहीं चाहते थे कि शेख को सत्ता मिले। इसके बाद आजाद बांग्लादेश की मांग उठने लगी। 7 मार्च 1971 को मुजीब उर रहमान ने बंगालियों को संबोधित किया और मुक्ति संग्राम का आह्वान किया। हालांकि फौजी तानाशाह याहया खान पहले ही सैनिक कार्रवाई का मन बना चुके थे। याहया के ढाका छोड़ते ही कत्ल का कारोबार शुरू हो जाता है।

मार्च 1971 की एक रात से उपन्यास शुरू होता है। जब पाकिस्तानी फौज ने ढाका यूनिवर्सिटी को निशाना बनाया था। फौज ने मुजीब उर रहमान को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान भेज दिया। उनकी मौत के आदेश पर हस्ताक्षर हो चुके थे लेकिन इस फैसले को अमल में नहीं लाया गया। इस बीच पूर्वी पाकिस्तान में हत्याओं, यातनाओं, बलात्कार, लूट, तबाही का दौर चलता रहा।

उपन्यास में लेखक पेन फौजी हुक्मरानों के किरदार के बारे में डिटेल से बताते हैं। मसलन टिक्का खान ने पूर्वी पाकिस्तान का गवर्नर रहते बहुत से मासूमों को मौत के घाट उतारा। ऑपरेशन सर्चलाइट उनके ही दिमाग की उपज था। साथ ही साथ लेखक बताते हैं कि यह फौजी प्रशासक मूर्ख, शराबी,सूदखोर और औरतखोर भी हैं। उपन्यास में बीतते वक्त के साथ गुरिल्ला युद्ध में निपुण मुक्तिवाहिनी पाकिस्तानी फौज के लिए परेशानी बनने लगती है। नवंबर तक पाकिस्तानी फौज को हार नजर आने लगती है।

इस बीच बढ़ते शरणार्थी संकट से परेशान भारत 3 दिसंबर को पाकिस्तान से युद्ध शुरू कर देता है। चार दिन के भीतर ही टाइगर नियाजी फूट फूटकर रोने लगते हैं। पूर्वी पाकिस्तान के एयर स्पेस पर भारत का एकाधिकार हो जाता है और समंदर के रास्ते पर भी भारतीय नौसेना का दबदबा हो जाता है। वहीं भारतीय फौज ढाका को घेर लेती है। तेरह दिन के भीतर पाकिस्तानी फौज इस युद्ध में सरेंडर कर देती है। 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों का सरेंडर पूरे पाकिस्तान के लिए शर्मिंदगी का सबब होता है।

इसके बाद जनता के डर से भयभीत याहया 20 दिसंबर को अपना पद छोड़ देते हैं और भुट्टो राष्ट्रपति बन जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भुट्टो को मुजीब को छोड़ना पड़ता है। उपन्यास के अंत में मुजीब उर रहमान ढाका लौट आते हैं। लेखक ने बताया है कि कैसे इस नरसंहार के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन याहया खान का समर्थन करते रहे। दक्षिण एशिया में रूस का दबदबा न हो जाए इस डर से निक्सन याहया की करतूतों को सही ठहराते रहे और लगातार हथियार मुहैया कराते रहे।

एक सरकारी आंकड़ा कहता है कि इस मुक्ति युद्ध में 30 लाख बंगाली, पाकिस्तानी फौज द्वारा मारे गए थे। वहीं एक करोड़ लोग शरणार्थी बनने को मजबूर हुए। साथ ही 3 करोड़ लोग विस्थापित हुए। सबसे शर्मनाक यह कि लाखों महिलाओं के साथ फौज ने बलात्कर किया। फौज बुद्धिजीवियों को खत्म कर बांग्लादेश को अपाहिज बना देना चाहती थी। दुनिया आज पाकिस्तानी फौज की इस पूरी कार्रवाई को एक नरसंहार के रूप में जानती है।

कत्लगाह एक तरह से बांग्लादेश मुक्ति युद्ध का इतिहास है। उपन्यास कल्पना और इतिहास की तथ्यपरकता का मिलन है। उपन्यास बताता है कि भले ही कितना जुल्म हो अगर आजादी की चाह है तो मंजिल हासिल होकर रहती है।

किताब के बारे में

अनुवाद- प्रियदर्शन
पेज – 416
प्रकाशक -राधाकृष्ण प्रकाशन
कीमत- 499 रुपये

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