किसी समाजशास्त्रीय शोध से कम नहीं है लेखक संजीव का उपन्यास ‘जंगल जहां शुरू होता है’

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हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक संजीव का उपन्यास ‘जंगल जहां शुरू होता है’ किसी समाजशास्त्रीय शोध से कम नहीं है। उपन्यास बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले पर केंद्रित है। लेखक ने इस उपन्यास में इस क्षेत्र में रही डाकुओं की समस्या को रेखांकित किया है। विषय के तौर पर डाकू समस्या को ही क्यों चुना इसका मेरी नजर में एक कारण यह भी रहा होगा कि महर्षि वाल्मीकि यहीं के माने जाते हैं। रत्नाकर डाकू के महर्षि बनने और रामायण लिखने की कहानी तो सब जानते ही हैं। मुमकिन है इसलिए भी शायद लेखक ने यह विषय चुना हो।

उपन्यास में इस क्षेत्र का चित्रण लेखक ने अपनी लेखनी से बखूबी किया है। भोजपुरी में बोलते किरदार, वन क्षेत्र और उसमें रह रहे जीव जंतुओं का विवरण आपको चंपारण ही पहुंचा देता है। वैसे तो इसी चंपारण से गांधी ने भारत में सत्याग्रह की शुरुआत की थी लेकिन देश आजाद हुआ फिर भी यहां हालात बदले नहीं। विडंबना ये रही कि प्राकृतिक रूप से इतना समृद्ध क्षेत्र , जहां गन्ने की भी इतनी बढ़िया पैदावार होती है ,के लोग अभावों से ग्रसित और डाकुओं से त्रस्त रहे। विशेषकर थारू जनजाति के लोगों का शोषण जारी रहा। दरअसल नेपाल और उसके आस-पास के क्षेत्र में थारू जनजाति के लोग रहते हैं और पश्चिमी चंपारण की भी नेपाल से खुली सीमा लगती है।

लेखक ने थारू लोगों की संस्कृति का विस्तृत उल्लेख इस उपन्यास में किया है। जैसे हिरण के मांस और गाय के दूध का निषेध। उपन्यास की शुरुआत में पाठक को पता चलता है कि सरकार ‘मिनी चंबल’ बन चुके इस क्षेत्र से डाकू समस्या का उन्मूलन करना चाहती है। डी.एस.पी.कुमार और उनके जैसे दूसरे अफसर इसलिए इस क्षेत्र में भेजे जाते हैं। यहां की स्थिति ऐसी क्यों है इसका लेखक हर पहलू से विवरण देते हैं। शिक्षा की कमी, भू स्वामित्व सीमित लोगों के पास होना,भ्रष्ट प्रशासन और राजनीति मिलकर हालात ज्यों के त्यों बनाए हुए हैं।

उपन्यास में काली, जो एक आम थारू युवक है और कुमार के संवाद सारी समस्याओं को बयान करते हैं। कुमार बाहर से आया है और पाठक को यहां की समस्या से परिचित कराता है। वहीं काली जो समस्या का भुगतभोगी है पाठक को हालात की और बेहतर समझ बनाने में मदद करता है। कुमार और काली दोनों मन ही मन चाहते हैं कि हालात बदलें लेकिन दोनों ही अपनी-अपनी परिस्थितियों में जकड़े हुए हैं ।

काली अपनी परिस्थितियों से विवश होकर डाकू बन जाता है। काली के बहाने लेखक बताते हैं कि कैसे हर तरह से थारू लोग शोषित हैं। डाकू से लेकर पुलिस वाले तक सब उनका शोषण करते हैं। उपन्यास में कहीं सुनवाई न होने पर काली भी डाकू बन जाता है। काली की परिस्थितियां गवाह हैं कि कोई डाकू क्यों बनता है। काली की नजर में डाकू और पुलिस में कोई अंतर नहीं हैं। पुलिस और डाकू दोनों हत्याएं करते हैं , उत्पीड़न करते हैं और भ्रष्ट हैं। दोनों ही राजनेताओं के इशारों पर चलते हैं। ऐसे में ये पुलिस वाले कैसे डाकू समस्या का उन्मूलन कर सकते हैं। उपन्यास में जब कुमार अपने वरिष्ठ अधिकारियों को नजरिया बदलने का सुझाव देता है तो जवाब में उसे यही कहा जाता है कि वह बस आदेश माने।

उपन्यास में डाकुओं और नेताओं का गठजोड़ दिखाया गया है। डाकू परशुराम यादव जो कि सबसे कुख्यात डाकू है बूथ कैप्चर कर नेताओं की मदद करता है और बाद में चुनाव में खड़ा होता है। वहीं दूबे जैसे मंत्री भी हैं जिनके डाकुओं से घरेलू रिश्ते हैं।इकलौती उम्मीद के नाम पर उपन्यास में शिक्षक मुरली पांडेय जैसे किरदार हैं। जो पाठकों को शिक्षित करते रहते हैं। गांधीवादी पांडेय आस-पास के परिवेश के विशेषज्ञ की तरह हैं और खुद से जो बन पड़े, समस्याओं को ठीक करने के लिए काम करते रहते हैं।

किताब के बारे में
लेखक-संजीव
पेज – 287
प्रकाशक- राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य-399 रुपये (पेपरबैक)

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