‘रेत’ में जनजातीय स्त्री को कल्पना के पर लगा देते हैं लेखक भगवानदास मोरवाल

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भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के दौरान कई ऐसे कानून बनाए गए थे जिसने जनजातीय समाज का उत्पीड़न किया। ब्रिटिश हुकूमत ने साजिश के तहत एक सोच का निर्माण किया कि कुछ जनजातियां आदतन अपराधी हैं। इसी आधार पर क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लाया गया था। जिसने पूरे देश के जनजातीय समाज पर अत्याचार किए। इस कानून के मुताबिक अगर जनजातीय समाज का कोई शख्स अपने क्षेत्र से निकलता भी था तो उसे इसके बारे में पुलिस में सूचना देनी होती थी। देश आजाद भी हुआ तो इन जनजातियों के साथ भेदभाव और उनके प्रति पूर्वाग्रह जारी रहा। पुलिस और न्याय व्यवस्था में भी इन जनजातियों के प्रति वही रवैया रहा है जो कि अंग्रेजी शासन के दौरान हुआ करता था। मीडिया में भी इनका गलत चित्रण होने से नहीं रोका जा सका है।

इसी तरह की एक जनजाति की कहानी लेखक भगवानदास मोरवाल ने अपने उपन्यास रेत में कही है। साथ ही इस रचना में स्त्री विमर्श के सुर भी सुनने को मिलते हैं। उपन्यास में लेखक के लेखन का केंद्र कंजर समुदाय रहा है। घनश्याम कृष्ण उर्फ वैद्य जी के जरिए लेखक इस समाज से परिचित कराते हैं। ‘कमलासदन’, जो कि मातृसत्ता का एक प्रतीक है, के जरिए लेखक वहां रह रही महिलाओं का सुख दुख सामने रखते हैं। कमलासदन में अलग-अलग पीढ़ियों की औरतें रहती हैं। कमला बुआ और वैद्य जी के बीच का संवाद पाठक को कंजर समुदाय के रीति रिवाजों से परिचित कराता है। पाठक को मालूम चलता है कि वक्त तो बीता है लेकिन चीजें इस समाज के लिए जैसी की तैसी ही हैं।

कंजर यानी एक ऐसी जनजाति जिसका घर एक समय में जंगल हुआ करता था लेकिन समय के चक्र ने इस समाज की महिलाओं को वेश्यावृत्ति में झोंक दिया। कैसे एक समय में जंगल और उसके संसाधनों के आधार पर अपना जीवनयापन करने वाला समाज ऐसी स्थिति में आ गया? यह सबसे बड़ी त्रासदी है। इस उपन्यास में एक संवाद आता है जब घर की सबसे छोटी बच्ची पिंकी से वैद्यजी पूछते हैं कि वह क्या बनेगी , वह जवाब देती है बुआ। बच्ची के जवाब को सुन छाया मौन बहुत कुछ कहता है जो पाठक समझ जाता है। कंजर समाज में महिलाओं के लिए दो ही रास्ते हैं या तो वह भाभी बन चाकरी कर अपना शरीर खपा दे या वह बुआ बन अपनी देह को बेचे। लेखक बताते हैं कि इस समाज का गुजर बसर बस इसी तरह होता है। लेखक समाज की महिलाओं की इसी स्थिति को कल्पना के पर लगाते हैं।

उपन्यास में लेखक की कल्पना रुक्मिणी नाम के किरदार को जिस्मफरोशी से मंत्री पद तक पहुंचाती है। रुक्मिणी का राजनीति में प्रवेश मुख्यधारा राजनीति में जनजातीय समाज के उठते सुर का भी प्रतीक है। कंजर समाज की औरतों का ‘जनजातीय महिला उद्धार सभा’ बनाना नारी सशक्तीकरण की एक मिसाल है। रुक्मिणी जनजातीय समाज के एक प्रतिनिधि के रूप में सियासत का दामन थामती है और फिर राजनीति में मंझते हुए मंत्री बनती है। यहां लेखक बताना चाहते हैं कि किसी भी समाज को महज वोट बैंक नहीं बनना चाहिए बल्कि अपने आप को सशक्त करना चाहिए।

उपन्यास में रुक्मिणी और सावित्री जैसे पात्र अपनी देह का इस्तेमाल सिर्फ पैसों की जरूरत को पूरा करने के लिए नहीं करतीं बल्कि खुद को सशक्त करने के लिए करती हैं। यह लेखक की सृजनात्मकता का एक दिलचस्प पहलू है। उपन्यास में लेखक बीच में ऐसा कुछ कह जाते हैं जो सोचने पर मजबूर कर देता है। मसलन, ”… एक आबरू ही तो होती है इस औरत जात के पास जिसके लालच में मरद मीलों दूर से खिंचा चला आता है। अब यह मरद के ऊपर है कि उसे वह अपनी ताकत से हासिल करता है या औरत की मरजी से। ”

इस उपन्यास के अंत में रुक्मिणी ईश्वर की जगह सत्यनिष्ठा की शपथ लेती है। वह कहती है, ” ईश्वर या भगवान तो तुम इज्जतदारों के होते हैं ,हम जैसों के कहां।” लेखक मोरवाल की इस रचना में भले ही अधिकतर पात्र यौनकर्मी हों लेकिन वह कई विवाहित औरतों से अधिक सशक्त हैं। यह उपन्यास न सिर्फ यौन आचरण को पितृसत्ता के दायरे बाहर लाता है बल्कि यह देह कर्म से स्त्री का सशक्तीकरण कर उसी पितृसत्ता को तमाचा भी मारता है।

किताब के बारे में…
लेखक- भगवानदास मोरवाल
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 299 रुपये
पेज संख्या- 324

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