कर्नाटक में तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं तो वहां सियासत होना लाजमी है। चुनावों को नजदीक देख कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत और वीरशैव लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जा देने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेज दी है। अब इस प्रस्ताव पर केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का क्या रुख होगा, इस पर राजनीतिक पंडितों की नजर टिकी हुई है। लेकिन, इतना तय माना जा रहा है कि कांग्रेस सरकार के इस फैसले को राज्य के लिंगायत समुदाय को अपनी ओर खींचने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है जो अभी तक भाजपा समर्थक माने जाते रहे हैं।

कर्नाटक की आबादी में करीब 18 फीसदी लिंगायत हैं और करीब 110 विधानसभा सीटों पर इनका रुख सत्ता के सिंहासन का रास्ता तय करवा सकता है, इसलिए राज्य का हर दल इनका समर्थन हासिल कर सत्ता के शीर्ष सिंहासन पर काबिज होना चाहता हैं। कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी लिंगायत समुदाय लंबे समय से अलग धार्मिक समूह और धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग करती रही है। इसमें लिंगायत और वीरशैव जैसे दो प्रमुख धड़े हैं। किसी प्रकार के असंतोष से निपटने के लिए सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत और वीरशैव दोनों ही धड़ों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला किया है।

जानिए आखिर कौन है लिंगायत?

कर्नाटक में हिंदुओं के पांच संप्रदाय माने जाते हैं जिन्हें शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक और स्मार्त के नाम से जाना जाता है। इन्हीं में एक शैव संप्रदाय के कई उप संप्रदाय है उसमें से एक है वीरशैव संप्रदाय। लिंगायत इसी वीरशैव संप्रदाय का हिस्सा हैं। शैव संप्रदाय से जुड़े अन्य संप्रदाय हैं जो कि शाक्त, नाथ, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव और कापालिक नामों से जाने जाते हैं। शायद आपको आश्चर्य हो सकता है कि कश्मीर को शैव संप्रदाय का गढ़ माना गया है।

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को अगड़ी जातियों में गिना जाता हैं, जो संपन्न भी हैं और इनके उत्पति का प्रारंभ 12वीं सदी से है जब राज्य के एक समाज सुधारक बासवन्ना ने हिंदुओं में जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। बासवन्ना मूर्ति पूजा नहीं मानते थे और वेदों में लिखी बातों को भी खारिज करते थे। लिंगायत समुदाय के लोग शिव की पूजा भी नहीं करते बल्कि अपने शरीर पर ही इष्टलिंग धारण करते हैं जो कि एक गेंद की आकृति के समान होती है। पहले लिंगायत इसको निराकार शिव का लिंग मानते थे लेकिन वक्त के साथ इसकी परिभाषा बदल गई। अब वे इसे इष्टलिंग कहते हैं और इसे आंतरिक चेतना का प्रतीक मानते हैं।

लिंगायत क्यों होना चाहते हैं हिंदू धर्म से अलग?

दरअसल लिंगायत चाहते हैं कि उन्हें हिंदू धर्म से अलग होने पर धार्मिक अल्पसंख्‍यकों का दर्जा मिल जाएगा और वे अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभों को हासिल करने में सफल होंगे। लिंगायत, लंबे समय से आरक्षण की मांग करते आए हैं। लेकिन अगर इन्हें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों का दर्जां मिलता है तो समुदाय में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का फायदा मिलेगा।

राज्य में लिंगायत संख्या बल और इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक तौर पर काफी प्रभावी हैं इसलिए सत्ता पाने का सपना देखने वाली हर पार्टी इन्हें खुश रखना चाहती हैं। वर्तमान में 224 सदस्यीय विधानसभा में 52 विधायक लिंगायत हैं और इन्हें काफी वक्त से भाजपा का समर्थक भी माना जाता है, इसलिए लिंगायतों को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस सरकार ने यह चाल चली है जो भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर सकती है।

ब्यूरो रिपोर्ट एपीएन

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