मॉब लिंचिग का मुद्दा देश में चौतरफा गरम है। सड़क से लेकर संसद तक मॉबोक्रेसी की चर्चा है। एक वर्ग साथ तो दूसरा इसके खिलाफ। भीड़तंत्र के चर्चा के सामानांतर एक पनपती विचारधारा जिसमें अल्पसंख्यक वर्ग को निशाना बनाने की बात कही जा रही है, और बहुसंख्यक वर्ग के साथ हो रही घटनाओ की अनदेखी का आरोप गढा जा रहा है। एक तरफ ये समझाया जा रहा है कि ये किसी सरकार,राज्य,धर्म,जाति,वर्ग से परे एक विक्रत मानसिकता है जिसको संभालने की जिम्मेदारी कानून व्यवस्था की है। लेकिन इन घटनाओ को राजनीतिक कोण भी दिया जा रहा है।

इसी बीच संसद में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने एक बार फिर 1984 दंगों की बात उठा अपनी सफाई और कांग्रेस पर निशाना, दोनो काम किए। 31 अक्तूबर 1984 को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों का जिक्र करते हुए गृह मंत्री ने कहा, कि 1984 की वो घटना मॉब लिंचिंग की सबसे बड़ी घटना है।

उधर अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए AIMIM अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 1984 की घटना को सबसे बड़ी लिंचिंग बताया लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि लिंचिंग न सिर्फ 1984 में हुई बल्कि बाबरी की शहादत में और 2002 के गुजरात दंगों मे भी हुई थी।

आज की तारीख मेंम अपनी जवाबदेही के दौरान 1984 के सिख दंगो का जिक्र करने के दो सिरे नजर आते है।पहला ये कि राजनीति के जानकारों के मुताबिक बीजेपी के भीतर ही एक ऐसा धड़ा है जो मॉब लिंचिंग के जरिए जानबूझकर 1984 दंगों का जिक्र कर रहा है। ताकि आवाम आज के साथ-साथ कल की भी चर्चा करे। लेकिन दूसरा पहलू से ये है कि बीजेपी नेताओ का 1984 के सिख की चर्चा छेड़ना विपक्ष को 2002 का गोधराकांड का मुद्दा उठाने के लिए उकसा रहा है। जिससे गुजरात के त्तकालीन मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असहज महसूस करें। बीजेपी के रणनीतिक केंद्र अमित शाह और शक्ति पुंज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से एक धड़ा नाराज भी है औऱ अनुमान यही है कि पार्टी के भीतर के यही लोग इस चिंगारी को हवा देने में लगे हैं जिससे पीएम मोदी की लोकप्रियता पर असर पड़े।

पीएम मोदी की पक्षधर मानी जाने वालीं केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भी राजनीति के इस खेल में मात खा गयीं और राहुल के पूरे परिवार को 1984 के सिख दंगों का जिम्मेदार ठहराने की जल्दबाजी में कांग्रेस को 2002 के दंगों की याद ताजा कराने का सुनहरा मौका दे दिया।

सवाल ये उठ रहे है कि जब मौजूदा सरकार से सवाल पूछे जा रहे है तो सरकार इतिहास के पन्ने क्यों झांक रही है ? क्या इतिहास में हुए ऐसे प्रकरण मौजूदा सरकार की जिम्मेदारी को कम कर देते है ? क्या कांग्रेस के कार्यकाल में हुई मॉब लिंचिग, बीजेपी के कार्यकाल में हो रही मॉब लिंचिग का सर्टिफिकेट साबित हो सकता है? हिंसा की घटनाओं को काल, धर्म, जाति, राज्य़ की परीधि से बाहर निकाल कर देखने की जरुरत नहीं है।

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