Same sex marriage को SC ने मान्यता देने से किया इंकार, यहां पढ़ें इस मामले में कब क्या हुआ

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वर्ष 2018 में समलैंगिक संबंध अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह पर फैसला सुनाया है। हालांकि, इस बार फैसला समलैंगिकों के पक्ष में नहीं गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इंकार कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस पीठ में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस. रविंद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल रहे। इस फैसले को लेकर जस्टिस एस. रविंद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की राय जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल से अलग नज़र आयी जिसके चलते 3-2 के मत से समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इंकार कर दिया गया।

पूरे देश की नज़रें सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले पर टिकी हुयी थी । इससे पहले अप्रैल-मई में 10 दिनों तक चली सुनवाई में, चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ के सामने कार्यवाही को आम जनता के लिए लाइव-स्ट्रीम किया गया था। जिसमें सरकार द्वारा सेम सेक्स मैरिज के विरोध में कई दलीलें दी गयी थीं और याचिकाकर्ताओं ने सेम सेक्स मैरिज के पक्ष में अपनी दलीलें सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की थीं।

जानिये आखिर क्या है पूरा मामला

सुप्रीम कोर्ट में 18 अप्रैल से इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय  साफ कर दिया था कि वो इस उम्मीद से कोई संवैधानिक घोषणा नहीं कर सकता कि संसद इस पर कैसी प्रतिक्रिया देगी।  दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत में सेम सेक्स मैरिज से जुड़ी सभी याचिकाओं को रद्द करने की अपील की थी। साथ ही केंद्र ने दलील देते हुए कहा था कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने या न देने का अधिकार संसद का है, न कि कोर्ट का।

यहां दोनों ही पक्षों के द्वारा दी गयी दलीलें और तर्क संक्षिप्त में बताये गए हैं।

याचिकाकर्ताओं की दलीलें :

समलैंगिकों ने याचिका में  स्पेशल मैरिज एक्ट, फॉरेन मैरिज एक्ट  और शादी से जुड़े कई कानूनी प्रावधानों को चुनौती देते हुए समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी देने का आग्रह किया था।  साथ ही उनकी यह भी मांग थी कि अपने मनचाहे व्यक्ति से शादी करने का अधिकार उनके समुदाय यानी  LGBTQ+ को उनके मौलिक अधिकार के रूप में दिया जाना चाहिए। 

इसके अलावा याचिकाकर्ताओं द्वारा  स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग भी उजागर की गई थी। उनका तर्क था कि ऐसा करने से किसी भी व्यक्ति के साथ उसके सेक्सुअल ओरिएंटेशन के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। याचिकाओं में यह तर्क था कि एक शादी अपने साथ “कानून द्वारा प्रदत्त और संरक्षित” कई अधिकार, विशेषाधिकार और ज़िम्मेदारी  लाती है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से, वरिष्ठ एडवोकेट मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि गैर-विषमलैंगिक जोड़ों के लिए विवाह का अधिकार अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (गैर-भेदभाव), 16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता), 19 (बोलने की स्वतंत्रता)  और 21 (जीवन का अधिकार) में निहित है।  अतः उन्हें समलैंगिक विवाह की मंज़ूरी मिलनी चाहिए।

केंद्र सरकार के समलैंगिक विवाह के विरोध में दलीलें और तर्क :

केंद्र  सरकार, राष्ट्रीय बाल अधिकार निकाय एनसीपीसीआर और  जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ( इस्लामिक स्कॉलर्स का एक संघ ), सहित उत्तरदाताओं ने याचिकाओं का विरोध करते हुए उनको खारिज करने की मांग की थी। केंद्र सरकार का कहना था कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 377 हटा दिया हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि याचिका करता समलैंगिक विवाह की मान्यता का दावा करे। 

हफलनामें में केंद्र द्वारा दलील दी गयी थी कि समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी इसलिए नहीं दी जा सकती क्योंकि कानून में पति और पत्नी की परिभाषा बायोलॉजिकल तौर पर दी गई है।  उसी के अनुसार  दोनों के कानूनी अधिकार भी बनाये गए हैं।  केंद्र का मानना था, यदि समलैंगिक विवाह में विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है तो उसमें पति और पत्नी को अलग अलग आखिर कैसे माना जा सकेगा।

केंद्र ने कोर्ट में अपना तर्क रखते हुए कहा कहा था कि यदि  समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता दे दी गई तो गोद लेने से , तलाक, भरण-पोषण, विरासत इत्यादि से संबंधित मुद्दों  से भविष्य में बहुत सारी मुश्किलें उत्पन्न होंगी।

केंद्र सरकार की ओर  सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था, “प्यार का अधिकार, साथ रहने का अधिकार, अपना पार्टनर चुनने का अधिकार,  अपनी सेक्सुअल ओरिएंटेशन चुनने का अधिकार’ ये सभी मौलिक अधिकार हैं लेकिन उस रिश्ते को शादी या किसी और नाम से मान्यता देने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।”

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