उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या भूमि विवाद को वृहद पीठ को भेजने से आज इन्कार कर दिया। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 2:1 के बहुमत का फैसला सुनाते हुए कहा कि इस्माइल फारूकी मामले में इस न्यायालय का फैसला भूमि अधिग्रहण से जुड़ा था और अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई में उस बिंदु को शामिल नहीं किया जा सकता। खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर शामिल हैं।

न्यायमूर्ति भूषण ने अपनी और मुख्य न्यायाधीश की ओर से फैसला सुनाया जबकि न्यायमूर्ति नज़ीर ने असहमति का फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति भूषण ने कहा कि फारुकी मामले में नमाज़ पढ़ने से संबंधित पांच सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला भूमि अधिग्रहण से जुड़ा था। उसे अयोध्या भूमि विवाद से जोड़कर नहीं देखा  सकता। उन्होंने कहा कि इस परिस्थिति में अयोध्या भूमि विवाद को वृहद पीठ के सुपुर्द करने से इन्कार कर दिया। अब अयोध्या विवाद की सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद में नमाज पढ़ने को कुरान का अटूट हिस्सा नहीं माना है।

सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर किया

उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसले में व्यभिचार को अपराध की श्रेणी में रखने वाले 157 साल पुराने प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक करार दिया। न्यायालय ने इससे संबंधित दंड विधान संहिता (सीआरपीसी) की धारा 198 के एक हिस्से को भी रद्द कर दिया।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने खुद एवं न्यायमूर्ति खानविलकर की ओर से, जबकि न्यायमूर्ति नरीमन, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ तथा न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने अपना-अपना फैसला सुनाया। सभी की राय हालांकि एक ही थी।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि व्यभिचार या विवाहेतर संबंध को शादी से अलग होने का आधार बनाया जा सकता है, लेकिन इसे अपराध नहीं माना जा सकता। उन्होंने कहा, “महिला और पुरुष दोनों में से कोई भी यदि दास की तरह व्यवहार करता है तो यह गलत है। महिला किसी की मिल्कियत नहीं होती।”

न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि केवल व्यभिचार को अपराध नहीं माना जा सकता, बल्कि यदि कोई पत्नी अपने जीवनसाथी के व्यभिचार के चलते आत्महत्या करती है और इससे जुड़े साक्ष्य मिलते हैं तो यह अपराध (आत्महत्या के लिए उकसाने) की श्रेणी में आयेगा। संविधान पीठ ने इटली में रह रहे केरल निवासी जोसेफ शाइन की याचिका पर फैसला सुनाया।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा, “हम कानून बनाने को लेकर विधायिका की क्षमता पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन आईपीसी की धारा 497 में ‘सामूहिक अच्छाई’ कहां है।” उन्होंने कहा, “पति केवल अपने जज्बात पर काबू रख सकता है लेकिन पत्नी को कुछ करने या कुछ नहीं करने का निर्देश नहीं दे सकता।”

न्यायमूर्ति नरीमन ने भी फैसले से सहमति जताते हुए कहा कि धारा 497 प्राचीन समय का है। यह असंवैधानिक है और इसे खारिज किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भी व्यभिचार अपराध को गुजरे जमाने की बात मानते हुए कहा कि धारा 497 महिला के आत्मसम्मान एवं गरिमा को ठेस पहुंचाती है। यह धारा महिला को पति के गुलाम की तरह देखती है। उन्होंने कहा कि धारा 497 महिला को उसकी पसंद के अनुसार यौन संबंध बनाने से रोकती है, इसलिए यह असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि महिला को शादी के बाद उसकी पसंद से सेक्स करने से वंचित नहीं किया जा सकता।

संविधान पीठ की एक मात्र महिला न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने भी व्यभिचार को अपराध घोषित करने वाली धारा 497 को असंवैधानिक माना।

धारा 497 के तहत अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी शादीशुदा महिला के साथ रजामंदी से संबंध बनाता है तो उस महिला का पति व्यभिचार के नाम पर इस पुरुष के खिलाफ मामला दर्ज कर सकता है, लेकिन वह अपनी पत्नी के खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। साथ ही विवाहेतर संबंध में शामिल पुरुष की पत्नी भी संबंधित महिला के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं करवा सकती।

इस मामले में महिला को अपराधी नहीं माना जाता, जबकि आदमी को पांच साल की जेल का सामना करना पड़ता है।

कोई पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, लेकिन उसके पति की सहमति नहीं लेता है, तो उसे पांच साल तक जेल की सज़ा हो सकती है। जब पति किसी दूसरी महिला के साथ संबंध बनाता है, तो उसे अपने पत्नी की सहमति की कोई जरूरत नहीं है।

याचिका में कहा गया था कि व्यभिचार पितृसत्तात्मक समाज पर आधारित है। इसमें महिला के साथ भेदभाव किया जाता है। यह महिला को पुरुष की संपत्ति मानता है, क्योंकि अगर महिला के पति की सहमति मिल जाती है, तो इसे अपराध नहीं माना जाता। मामले की सुनवाई के दौरान एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठा था कि क्या सहमति से बनाये गये शारीरिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखना चाहिए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here