ज्यों-ज्यों दवा की गई त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया। यह कहावत पूरी तरह सटीक बैठती है उत्तराखंड के पलायन पर। हालांकि पलायन पूरे देश की नहीं विश्व की समस्या है,लेकिन तमाम दावों के बावजूद उत्तराखंड पलायन से मुक्ति नहीं पा रहा है। लगातार बढ़ता पलायन इस बात का संकेत है कि कहीं न कहीं व्यवस्थागत खामियां पलायन को और बढ़ा रही हैं। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण इलाके कभी गुलजार रहते थे…आज हर तरफ वीरानी छाई हुई है….जिन घरों के आंगन में बच्चों की किलकारियां गूंजा करती थी…उन घरों के मुख्य दरवाजों पर अब बड़े बड़े ताले लटक रहे हैं…उत्तराखंड के 13 जनपदों में तहसीलें उपतहसीलें बढ़ी,लेकिन विकासखंड आज भी वहीं के वहीं हैं।

9 नवंबर को 2000 को अस्तित्व में आए उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 53 हजार 483 वर्ग किलोमीटर है,जबकि राज्य का कुल वन क्षेत्र 38 हजार वर्ग किलोमीटर है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन और नेपाल से लगने वाला उत्तराखंड पलायन का दंश झेल रहा है।उत्तराखंड की अन्तर प्रादेशिक सीमाएं उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश से लगती हैं। राज्य बनने के बाद भी उत्तराखंड में गैर आबादी गांवों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है, प्रदेश के कुल 16 हजार 7 सौ 93 गांव में से 4 सौ से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं बाकी बचे  गांवों में अगर 25 परिवार रहते हैं तो गांव में केवल 8-10 परिवार ही रहते हैं,यही हाल टिहरी और पौड़ी के पलायन की मार झेल रहे गांव में अब मंडल मुख्यालय से लगभग 70 किलोमीटर दूर कोट ब्लॉक का नकोट गांव भी आ गया है। इस गांव में कभी 85 से ज्यादा परिवार रहते थे, गांव में चहल पहल रहती थी अब गांव की गलियां सूनी हो गई हैं। मुश्किल से 15 से 20 परिवार ही गांव में रह गए हैं, ज्यादातर घरों में ताले बंद हैं और लोग रोजी रोटी की तलाश में दूर देश चले गए हैं। जो घर हैं उनमें भी घर के बड़े बुजुर्ग, विशेषकर महिलाएं ही पहाड़ में बचीं हैं। शेष लोग मैदानों की ओर उतर चुके हैं। जिसके कारण पहाड़ में अराजक तत्वों का जमावड़ा हो रहा है। पहाड़ों में पलायन से गांव ही वीरान नहीं हुए बल्कि मां बाप की उम्मीदें भी टूट गई हैं, जिन्हें अपने बच्चों से बुढ़ापे में सहारा बनने की उम्मीद थी, अब अकेले जिंदगी के आखिरी दिन काटने को मजबूर होना पड़ रहा है।

अब पहाड़ के लोग चाहते हैं कि सरकार कुछ ऐसा करे कि युवाओं को नौकरी और रोजी रोटी की तलाश में बाहर  न जाना पड़े और बुजुर्गों को उम्र के आखिरी पड़ाव में अकेलेपन का सामना ना करना पड़े। कहा जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ी की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। पानी बहकर मैदानी इलाकों में चला जाता है तो जवानी यानी युवा नौकरी की तलाश में दूसरे देश और प्रदेशों में चले जाते हैं। इन्हीं सब समस्याओं के समाधान के लिए अलग प्रदेश की मांग उठी थी, अलग प्रदेश तो बन गया लेकिन समस्याएं वहीं की वहीं हैं। न रोजगार के अवसर पैदा हुए न ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाएं मिल पाई। नतीजा सबके सामने है जाहिर, पलायन की समस्या को रोकने के लिए महज वादों से पलायन नहीं होगा, इसका एक मात्र समाधान पहाड़ तक विकास की समुचित किरणें पहुंचाना होगा।

एपीएन ब्यूरो

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here