कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को नया फितूर चढ़ा है – कर्नाटक राज्य का अलग ध्वज कायम करने का!! हम पहले ही जम्मू-कश्मीर को लेकर परेशान हैं – देश से दो विधान, दो प्रधान, दो निशान मिटा देना चाहते हैं और ये अपना अलग झंड़ा उठाना चाहते हैं। ये पूछा जाना चाहिए सिद्धारमैया जी से और वहाँ की पूरी काँग्रेस सरकार से कि क्या समूचे कर्नाटक में विकास के परचम लहरा रहे हैं, क्या भ्रष्टाचार, ग़रीबी, अशिक्षा पर पूरी तरह काबू पा लिया है? …दुनिया में देश की आईटी राजधानी के रूप में ख्याति पाने वाले बेंगलूरू की आज क्या हालत है? वहाँ की सड़कें, ट्रैफिक, कचरा, प्रदूषण क्या सब ठीक हो चुका? क्यों सब मुद्दों से ध्यान भटकाकर इस क्षेत्रवाद की आग में जनता को झोंकना चाहते हैं आप?

नासमझ हैं, जो अपनी सांस्कृतिक पहचान को संजोने और इस झंडेवाद की राजनीति में अंतर नहीं कर पाएँगे, वो तो झुलस जाएँगे…बड़ी मुश्किल से ये ख़ूबसूरत देश बना है… हमें गर्व है कि इस गुलदस्ते में कर्नाटक जैसा ख़ूबसूरत, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला महकता हुआ गुल मौजूद है, आप क्यों इसकी पत्तियाँ नोंचते हैं? हम सबके लिए वो ख़ूबसूरत तिरंगा है ना… वो सबके लिए है… और उसके नीचे सब अपने पूरे वजूद के साथ आनंद लेने को स्वतंत्र हैं…. फिर क्यों? उस यूनियन जैक को उतारकर इस शान से लहराते तिरंगे को फहराने के लिए कितने बलिदान हुए, क्या ये भी आप भूल गए?

तमाम भावनात्मक आलोड़न के साथ ही ये तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि हमारे संविधान में राज्यों के स्वतंत्र झंड़े को लेकर कोई दिक्कत नहीं है, यहाँ तक लिखा है कि इसे राष्ट्र ध्वज के नीचे फहराया जा सकता है, सो कोई कानूनी दिक्कत भी नहीं है…. पर इस कानून से ही दिक्कत है…. संविधान के कई गैर ज़रूरी प्रावधानों की तरह ही इसे भी बदल दिया जाना चाहिए…. एक राष्ट्र – एक ध्वज … पर्याप्त है….।

ये सही है कि कर्नाटक में स्थानीय तौर पर लाल और पीले रंग के मिश्रण वाले एक ध्वज का उपयोग सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में होता आया है। पर उसे यों औपचारिक करने की मंशा उतनी सहज प्रतीत नहीं होती जितनी सहजता से ये ध्वज उपयोग में आता रहा है। ख़ास तौर पर तब जब हाल ही में हिन्दी की नाम पट्टिकाएँ मिटाने की भी मुहिम भी कर्नाटक में चलाई गई थी। ये क्षेत्रवाद की आग को नए सिरे से भड़काने की सुनियोजित कोशिश नज़र आती है।

जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, वहाँ तो अपराधी हम सभी हैं। हमें अंग्रेज़ी तो चल जाएगी पर हिन्दी नहीं। हम सारे भारतवासी संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को तो अपना सकते हैं पर हिन्दी को नहीं। हिन्दी का उपयोग अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को डराता है, पर अंग्रेज़ी का नहीं, हिन्दी उन पर थोपी जा रही है, अंग्रेज़ी तो वे ख़ुद ही अपना लेंगे। हिन्दी उनकी संस्कृति का हरण कर लेगी, अंग्रेज़ी नहीं करेगी। ये दुर्भाग्य है इस देश का और राजनीति के घिनौने खेल का कि इस तरह की मानसिकता हावी हो गई।

त्रिभाषा सूत्र को अगर हम ठीक से अपना लेते तो ये नौबत नहीं आती। अभी जो कन्नड़ बनाम हिन्दी का विवाद कर्नाटक में सामने आया है वो ना तो नया है, ना ही चौंकाने वाला। हम अपनी भाषाई विरासत के ख़ूबसूरत फूलों को एक सूत्र में पिरोकर सुंदर गुलदस्ता या माला बनाने में पूरी तरह विफल रहे हैं। हमने उन्हें बंद कमरों में उगने दिया जहाँ अंग्रेज़ी की कलियाँ तो खिल सकती थीं पर अपने ही देश की अन्य भाषाओं के बीज भी वहाँ बोने की मनाही थी। इसमें ग़लती हिन्दी वालों की भी है – हम तमिल, तेलुगू, कन्नड, मलयालम, बांग्ला, मराठी या उडिया नहीं सीखेंगे पर इन सभी को हिन्दी ज़रूर सीखनी चाहिए? ऐसा क्यों? सभी को विद्यालयीन स्तर पर दूसरे दो राज्यों की भाषा सीखना अनिवार्य कर दीजिए… जब वो बड़ा होकर प्रेम से उस राज्य और संस्कृति को समझते हुए वहाँ की भाषा बोलेगा तो अपने आप ही इस वैमनस्य को कम कर प्यार के फूल खिलाने में मदद मिलेगी।

इसमें कोई शक नहीं कि हमें अपने संघीय ढांचे के बीच ही अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को भी ना केवल बचाए रखने बल्कि पुष्पित और पल्ल्वित होने के अवसर भी देने होंगे। किसी भी राज्य, भाषा या क्षेत्र को अपनी पहचान ख़तरे में नज़र नहीं आना चाहिए, ये तो वो टिमटिमाते दिए हैं जिनके प्रकाश से पूरा भारत रोशन नज़र आता है, पर ये साथ ही अच्छे दिखाई देते हैं। अकेले में तो ना वो दिया महफूज़ होगा और ना ही भारत की तस्वीर उतनी उजली होगी।

 

—एपीएन डेस्क

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