आधार कार्ड को लेकर आजकल देश में काफी बहस चल रही है। मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी गया हुआ है। सरकार कहती है कि भारत के हर नागरिक को यह पहचान-पत्र अनिवार्य रुप से रखना होगा। जबकि सर्वोच्च न्यायालय अपने पिछले दो फैसलों में कह चुका है कि इसे आप अनिवार्य नहीं कर सकते। सरकार के अपने तर्क हैं। वह कहती है कि ‘आधार’ नामक पहचान-पत्र उंगलियों के छापे और आंखों के चित्र से बनते है। इसकी नकल दुनिया में कोई नहीं कर सकता। इसमें धारक का नाम, पता, व्यवसाय, बैंक, खाता नं. तथा अन्य कई जरुरी जानकारियां भी रहेंगी, जो सरकारी डाटा-बैंक में जमा रहेंगी। जब भी जरुरत होगी, सभी जानकारी एक सेंकड में हासिल हो जाएगी। यह आधार-कार्ड आपके पहचान-पत्र, पासपोर्ट, पेन कार्ड, राशन कार्ड, मतदान-पत्र आदि सबका काम एक साथ करेगा। यदि कोई अपना नाम और पहचान बदलकर धोखाधड़ी करना चाहेगा तो वह तुरंत पकड़ा जाएगा। कोई नकली बैंक-खाता नहीं खोल सकेगा। बैंकों के जरिए कोई काला-धन जमा नहीं कर सकेगा, अपना पैसा नकली नाम से विदेश नहीं ले जा सकेगा, सरकारी सहायताओं में लूट-पाट नहीं मचा सकेगा। सरकार इस ‘आधार’ को सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य करना चाहती है लेकिन कई बड़े प्रबुद्ध लोग इसका डटकर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि हर नागरिक के बारे में सरकार के पास इतनी ज्यादा जानकारियों का होना उस नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन है।

यह संविधान और मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। सरकारी तंत्र के पास जमा इस निजी जानकारी को कोई भी चुरा सकता है। तकनीकी चोरी के मामले आए दिन होते रहते हैं। इसी तरह की कई आपत्तियां खड़ी की जा रही हैं। जैसे यह कि जिन गरीब, ग्रामीण और अशिक्षित लोगों के पास आधार कार्ड नहीं हैं, वे क्या सरकारी सहायता से वंचित नहीं हो जाएंगे? दोनों पक्षें के पास अपने समर्थन में असंख्य तर्क हैं लेकिन करोड़ों की संख्या में जिस तरह आधार कार्ड बन रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि आम जनता को इससे कोई एतराज़ नहीं है।

डां वेद प्रताप वैदिक

Courtesyhttp://www.enctimes.com

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