पूर्वांचल में लाल झंडे के झंडाबरदार थे झारखण्डेय राय, जिनकी अर्थी भी चंदे से उठी

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Jharkhande Rai
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दिव्येन्दु राय | भारतीय राजनीति एवं आजादी तथा राष्ट्रप्रेम में त्याग एवं बलिदान करने वालों की कहानी, उनकी दास्तां अब लोग भूलते जा रहे हैं। तत्कालीन आजमगढ़ जनपद वर्तमान समय के मऊ जनपद के घोसी तहसील के अन्तर्गत अमिला ग्रामसभा में राधेराय के घर 10 सितम्बर 1914 को एक लड़के ने जन्म लिया। उस बालक का नाम झारखण्डेय राय रखा गया। वह अपने माता पिता की एकमात्र सन्तान थे।

उन्हें मित्रों, परिचितों और सरकारों को चिट्ठियां लिखने का बहुत शौक था। चिट्ठियों के लिखने के उनके खास तरीके से सभी सम्मोहित हो जाते थे। उनकी चिट्ठियों में खास बात यह होती थी कि वह जिस स्थान से चिट्ठी लिखते, उस स्थान-विशेष के नाम का उल्लेख जरूर करते। जैसे यदि किसी ट्रेन में यात्रा के दौरान चिट्ठी लिख रहे हैं तो, उसमें ऊपर लिखतेंं.. ” फलां ट्रेन से चिट्ठी..”

ईमानदार इतना कि दिल्ली में जब निधन हुआ तो उनके शव को गांव लाने भर के पैसे नहीं थे, और बेटे अशोक को लोगो से चंदा मांग कर उन्हें पैतृक गांव अमिला लाना पड़ा। शुभचिंतकों और मित्रों ने जब उनके बैंक खातों को खंगाला तो उसमें फूटी कौड़ी तक नहीं थी। यही नहीं जमींदार परिवार में पैदा होने के बावजूद ‘जमीदारी प्रथा’ के उन्मूलन के लिए शोषितों, मजदूरों, किसानों और वंचितों को लेकर उन्हीं जमीदारों के विरुद्ध आंदोलन किए।

कामरेड जय बहादुर सिंह के बाद आजमगढ़ में वामपंथी जमीन को सींचने और ऊर्वर करने वाले इस नेता का घर आज भी खंडहर से ज्यादा कुछ भी नहीं है जबकि 1952, 57, 62 और 67 में घोसी से विधायक चुने गए। इस दौरान खाद्यमंत्री बनने का मौका मिला। 1967, 1971 के चुनाव में लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1977 में पराजित हुए, 1980 में तीसरी बार लोकसभा में जाने का मौका मिला।

सादगी और ईमानदारी का दूसरा नाम ‘झारखंडेय राय’ कहना गलत नहीं होगा। उनका पूरा जीवन ही सादगी भरा था। उन्हें अपना काम खुद करना पसंद था। यहां तक कि अपना कुर्ता-धोती भी वह खुद ही धोते थे, सूखने पर उसे तह करके तकिया के नीचे रख देते थे और एक दिन बाद उसे पहनते थे। किताबों से उन्हें बहुत लगाव था, काम करने के बाद मिलने वाला समय किताबों को देते थे। उन्होंने क्रान्तिकारियों पर कुछ किताबें भी लिखी थीं। जो इतिहास और राजनीति पर आधारित थी, उनमें से प्रमुख रूप से ‘अगस्त विद्रोह’, ‘क्रांतिकारी जनवादी’, ‘भूमि सुधार और भूमि आंदोलन’, ‘गोपालन के नाम खुला पत्र’, ‘क्रांतिकारियों के संस्मरण’, ‘पंतशाही को चुनौती’, ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन: एक विश्लेषण’, तथा ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ आदि थीं। इतना ही नहीं वह कार्यकर्ताओं को किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी करते थे।

1967 में चौधरी चरण सिंह की सरकार में जब उन्हें खाद्य मंत्री बनने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने गन्ना किसानों को लाभ दिलाने के लिए पूर्वाचल में चीनी मिलों की स्थापना का प्रयास किया। किसानों को अधिक से अधिक गन्ने की खेती के लिए प्रेरित किया। इस समय के लोग उनके चीनी को लेकर पूर्वांचल को प्रोत्साहित करने पर प्रायः चाय खानों और दुकानों पर जाकर बोलते सुने जाते कि- भाई! झारखंडी चाय पिलाओ.’ आखिर यह ‘झारखंडी चाय’ क्या थी? दरअसल ईख वाले इस पूर्वी पट्टी में तूरपीन से चीनी बनाने का चलन शुरू हुआ था। प्रायः बड़े दुकानदारों के यहां यह मशीन रहती थी। चीनी बनाने की विधियों का तेजी से इस्तेमाल होना शुरू हुआ था- जिसको लेकर लेकर चाय में गुड़ के स्थान पर चीनी का प्रयोग शुरू हुआ था। इसलिए इस चाय को झारखंडी चाय कहा गया।

दिग्गज कम्युनिस्ट नेता जयबहादुर सिंह के निधन के बाद पूर्वाचल में लाल झण्डे की कमान उनके हाथ में आ गई थी। वह जब मात्र पांच वर्ष के थे तो उन्होंने 13 अप्रैल 1919 को घटित जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार के बाद रक्त से रंजित मिट्टी का अपने गांव में ही दर्शन करके अपने माथे पर तिलक लगाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्म करने का संकल्प लिया तो गांव के लोगों ने उस वाकये को बचपना माना। यह मिट्टी उनके गांव के ही कांग्रेसी नेता अलगू राय शास्त्री जो बाद में घोसी लोकसभा क्षेत्र से पहले सांसद भी निर्वाचित हुए लेकर आये थे। लेकिन झारखण्डेय राय की जैसे उम्र बढ़ती गई वैसे ही उनकी आज़ादी के प्रति दीवानगी बढ़ती गई। उनके कारनामों को सुनकर लोग दांतों तले अंगुली दबाने लगे।

सशस्त्र क्रांतिकारी, वामपंथ एक धुरी रहे पूर्व मंत्री एवं पूर्व सांसद झारखंडेय राय को बचपन से ही साम्राज्यवाद की शहनाई रास नहीं आई। झारखंडेय राय ने अपने द्वारा लिखी हुई पुस्तक “भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का एक विश्लेषण” में इस जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार की मिट्टी से स्वयं के प्रभावित होने का तथ्य स्वीकार किया है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ उत्पन्न चिंगारी पहली बार तब धधकी जब वेस्ली हाई स्कूल आजमगढ़ में उनसे बाइबल पढ़ने के लिए कहा गया। उन्होंने पाठ से से मना कर दिया तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।

निकाले जाने के बाद उन्होंने राजकीय हाई स्कूल, बस्ती में प्रवेश लिया यहां पर छात्रों की यूनियन बनाकर मांगे पूरी ना होने पर हड़ताल कर दिया। यहां से भी निकाले जाने के बाद झारखण्डेय राय पूरी तरह से क्रांतिकारी हो गये। नारायण चतुर्वेदी की सिफारिश पर इनको जुबली हाई स्कूल, गोरखपुर में प्रवेश मिला। प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर इन्होंने अपने प्रतिभा का लोहा भी मनवाया।

1930 में नवयुवक सुधार संघ की स्थापना कर इन्होंने अपने क्रान्ति के अरमानों को पंख दे दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा देकर घर वापस आने के दौरान वाराणसी में क्रांतिकारी साहित्य एवं संगठन के संविधान के साथ गिरफ्तार कर लिए गये। यहाँ पर उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी(RSP) में बड़े नेता के रूप में कार्य किया। बाद में रिहा हुए पर अध्ययन का क्रम टूटा तो पूरी तरह से सशस्त्र क्रांति से जुड़ गये। जय बहादुर सिंह एवं राधेश्याम संग 19 अप्रैल 1938 को वर्तमान के मऊ जनपद के पिपरीडीह में ट्रेन से जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।

इस घटना के बाद इनकी गतिविधियां तेज होने लगीं, पूर्वांचल में सशस्त्र क्रांति को नई धार देने के साथ ही पुलिस को गाजीपुर जेल तोड़कर बंद पिपरीडीह कांड के आरोपियों को नेपाल ले जाने की योजना भनक लगी तो उनके हाथ पांव फूल उठे।

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान वह किसान सभा की गतिविधियों से सक्रियता से जुड़े। सामन्तों और ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांव-गांव में किसानों को एकजुट किया। झारखण्डेय राय की गिरफ्तारी चुनौती बन गई, अंततः 18 अक्टूबर 1939 को वह किसान सभा कार्यालय पुलिस ने प्रतिबंधित साहित्य रखने के आरोप में पकड़ लिया। 1940-41 में गाजीपुर में देवरीकांड हुआ, जिसमें झारखण्डे राय को नजरबंद कर दिया गया। इन मामलों के अतिरिक्त ‘गाजीपुर हथियार षड्यंत्र केस’, और ‘लखनऊ षड्यंत्र केस’ में अंग्रेजी सरकार द्वारा उन्हें 29 वर्ष की सजा सुनाई गई।

राजस्थान के नजरबंदी जेल देवली में उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर 21 अक्टूबर 1941 से 32 दिनों तक भूख हड़ताल की। गिरफ्तारी के 7 वर्षों पर बाद आजादी मिलने से कुछ दिन पहले समझौते के तहत जब राजनीतिक बंदियों को छोड़ा जा रहा था तभी इनको भी रिहा किया गया। यहीं नहीं आजादी के लड़ाई का यह नायक आजादी के बाद, आजाद भारत में भी गरीबों और मज़लूमों की आवाज उठाने के लिए 18 बार जेल गया। झारखंडेय राय आजीवन किसानों और मजदूरों की लड़ाई लड़ते रहे। पूर्वांचल के सभी जिलों में साम्यवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार ही उनके जीवन का मिशन रहा। लोकसभा में उन्होंने जब भी कोई मुद्दा उठाया, वह गरीबों और किसानों से ही जुड़ा रहा।

लखनऊ में पेपर मिल कॉलोनी में रहते थे तो बिना किसी तामझाम के लोगों से मिलते थे। लोगों की मदद करने में वे कोई संकोच नहीं करते थे, उन्होंने कभी भी उसूलों से रत्ती भर समझौता नहीं किया। यही कारण है कि चौधरी चरण सरकार में भूमिहीनों को भूमि वितरण में उनके विचारों से विभिन्नता होने पर सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। 18 मार्च 1987 को यह जननेता भारत माता की गोद में हमेशा हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गया।

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