समलैंगिकता अपराध है या नहीं? केंद्र ने यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया है। आईपीसी की धारा 377 के मुद्दे पर अपने जवाब में केंद्र ने अपना रुख साफ नहीं किया है। अदालत में दाखिल अपने हलफनामे में केंद्र ने यह सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया है कि वह धारा 377 को वैध या अवैध घोषित करे।

समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखने आईपीसी की धारा 377 की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई लगातार दूसरे दिन बुधवार (11 जुलाई) को भी जारी रही। समलैंगिकता पर कॆंद्र सरकार ने अपनी राय रखने से इनकार कर दिया है। इस मुद्दे पर मंगलवार (10 जुलाई) को शुरू हुई सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने के पक्ष में कई दलीलें रखी थीं। बुधवार बुधवार (11 जुलाई) को कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में केंद्र ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ही तय करे की समलैंगितां को अपराध की श्रेणी से बाहर रखा जाए या फिर नही। अपने जवाब में केंद्र ने कहा है कि जहां तक धारा 377 के तहत दो व्यस्कों के बीच सहमति से रिश्तों की संवैधानिक वैधता का सवाल है तो केंद्र सरकार यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ती है। केंद्र ने कहा कि वह इस बिंदु पर अपना पक्ष नही रखेगी की किसी व्यक्ति को चुनना अपना उनका मौलिक अधिकार है या फिर नही?

हालांकि सरकार ने अपने जवाब में कहा संवैधानिकता का मामला हम कोर्ट पर छोड़ रहे लेकिन अगर अदालत इससे जुड़े तमाम अन्य पहलुओं पर विचार करने की बात करेगी तो केंद्र सरकार विस्तार से अपना पक्ष रखेगी। केंद्र ने कहा कि ऐसा इसलिए क्योंकि तब इसका कई अन्य कानूनों और व्यवस्थाओं पर भी असर पड़ेगा।

इस मसले पर मंगलवार (10 जुलाई)  को शुरू हुई सुनवाई में प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हम केवल इस पहलू को देखेंगे कि समलैंगिकता को अपराध के तौर पर देखा जाए या फिर नहीं?  मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है। पीठ के पांच जजों में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में दो वयस्कों के बीच समलैंगिक रिश्तों को वैध करार दिया था। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि 149 वर्षीय कानून ने इसे अपराध बना दिया था, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलट था और इसे फिर अपराध की श्रेणी में डाल दिया था।

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