-डॉ. अकरम हुसैन
यह तो सत्य है जो इस दुनिया में आया उसको तो जाना ही है लेकिन प्रश्न यह है कि दुनिया में आपको कैसे याद किया जाएगा। आपको कोई आपके कर्म, लेखन, भाषा, संस्कार और संस्कृति के लिए ही याद करेगा। दुनिया में बहुत शायर, कवि आए और उन्होंने अपनी छाप विभिन्न माध्यमों से छोड़ी। हर कवि और शायर अपनी इसी अनूठी पहचान के लिए जाना जाता है। जैसे आवाम की ज़ुबान में शायरी करने का सर्फ डॉ. राहत इंदौरी को जाता है और क्रांतिकारी शायरी के लिए लोग हबीब जालिब को सुनते हैं, प्रेम, इश्क और मोहब्बत के लिए मंचीय कवि कुमार विश्वास का नाम आता है इसी श्रेणी में दुनिया का अनमोल उपहार मां पर शायरी करने का श्रेय मुनव्वर राणा को जाता है।
उनकी शायरी को मशहूर ही ‘मां’ ने किया है। वो जब भी शायरी करते थे तो मां पर ज़रूर कुछ ऐसे अशआर कहते थे जिससे वहां बैठे दर्शक अपने को रोक नहीं पाते थे और मां को याद करके भावुक हो जाते थे। इन्हीं सब पहलुओं का आकलन करते हुए उनके मां पर कहे कुछ शेर जो हर कोई अपनी मां को याद करते हुए उद्धृत करता है–
इस्लाम में मौत के बाद हिसाब किताब का कॉन्सेप्ट है जिसके संदर्भ में मुनव्वर राना कहते हैं–
“दावर—ए–हश्र तुझे मेरी इबादत की कसम यह मेरा नाम–ए–आमाल इज़ाफी होगा नेकियां गिनने की नौबत ही नहीं आएगी मैने जो मां पर लिक्खा है, वही काफी है”
एक शायर का कितना पक्का यकीन है कि उनका आखिरत में कोई हिसाब किताब नहीं होगा क्योंकि उन्होंने जो मां पर लिखा है वही इस रहती दुनिया तक काफी है जिसको भगवान देख रहा है। वैसे भी कहा जाता है कि मां के पैरो में जन्नत है जिसपर मुनव्वर साहब ने लिखा है-
“चलती फिरती आंखों से आज़ा देखी है मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, मां देखी है ”
इस शेर में शायर अपनी अनभिज्ञता दर्शाते हुए कहता है कि मैंने जन्नत, दोजख तो नहीं देखी है लेकिन हां मां देखी है जिसके पैरों में जन्नत का तसव्वुर बताया जाता है। जिसके बर्बक्श वो कहते हैं कि “लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती बस एक मां है जो मुझसे ख़फा नहीं होती”
मुनव्वर राणा कहते हैं कि दुनिया में सब रूठ जाते हैं, है कोई नाराज़ हो सकता है लेकिन मां ही एक ऐसा रूप है जो कभी नाराज़ नहीं होती चाहे उसका बेटा लायक हो या नालायक हर मां अपने बेटे को बराबर प्रेम देती है और उसका ख्याल रखती है जैसा कि वो कहते हैं–
“मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना”
मां का प्रेम कुछ मुझसे ऐसा रहा है अगर मां ने मेरे आंसू पोंछे हैं तो कई वर्षों अपना दुपट्टा ही नहीं धोया है और उसको याद करके वह अपने बेटे को रोने नहीं देती है और उसके लिए हमेशा दुआ करती है–
“इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है”
एक मां कभी भी अपने बच्चे को नहीं रोने देना चाहती है जब भी कभी कोई कमी–बड़ी होती है तो भूख से बिलखते बच्चे को मारती नहीं है बल्कि रो देती है और अपने बच्चे के लिए रब से दुआ करती है। जिससे बच्चे भी देखकर रोने लगते हैं
”मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती”
इस शायरी में शायर चेतवानी देता है कि कहीं भी मां के सामने खुलकर नहीं रोना चाहिए बल्कि जहां तक हो सके तो अपने आंसुओ को रोकना चाहिए और मां के दुख दर्द को कम करना चाहिए। “मुकद्दस मुस्कुराहट मां के होंठो पर लरजती है किसी बच्चे का जब पहला सिपारा खत्म होता है” जब किसी बच्चे को इस्लामिक शिक्षा दी जाती है तो सबसे पहले वह सिपारा पड़ता है जिसके समाप्त होने पर मां को खुशी होती है और मां ऐसा ऐसा मानती है कि उसने अपनी शिक्षा की पहली जिम्मेदारी पूरी कर ली है।
परदेश में रहने वाले स्टूडेंट के संदर्भ में भी मुनव्वर राणा साहब ने बहुत लिखा है–
“खाने की चीज़े मां ने जो भेजी हैं गांव से बासी भी हो गई हैं लेकिन लज़्जत वही रही”
यह वो प्रेम है जिसको बाहर रहने वाला हर मां का लाल पाना चाहता है। जब भी कोई मां अपने बच्चे को घर से कोई पकवान बनाकर भेजती है तो वह बेशक बासी हो जाता है लेकिन उसमें जो मां की ममता मिली होती है वो उस पकवान के स्वाद को कम ही नहीं होने देती है। जबकि प्रदेश में बेटा अनेक परेशानियों का सामना करता है इसी को दृष्टिगत करते हुए मुनव्वर साहब कहते हैं–
“बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर मां सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है”
घर से बाहर रहने की हकीकत तो वहीं इंसान जानता है जो घर से बाहर है लेकिन मां सबसे कहती है कि मेरा बेटा बाहर मजे में रह रहा है।
(डॉ. अकरम हुसैन राजकीय शास्त्री संस्कृत महाविद्यालय,बूंदी (राजस्थान) में सहायक आचार्य (हिंदी) के रूप में कार्यरत हैं।)