उत्तर प्रदेश में बूचड़खानों के संचालन के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाये गए एक्ट की वैधता को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। बुधवार (4 जुलाई) याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने बूचड़खानों को लेकर दाखिल सभी याचिकाओं को एक साथ सूचीबद्ध करने का आदेश दिया है।

हाईकोर्ट ने कहा है कि इस मामले में दाखिल सभी याचिकाओं पर कोर्ट एक साथ जुलाई के तीसरे हफ्ते में सुनवाई करेगा। अगली सुनवाई पर कोर्ट में इस बात पर बहस होगी कि राज्य सरकार को नगर निकायों के बूड़खानों के संचालन के लिए मिले अधिकार को खत्म कर नया एक्ट बनाने का अधिकार है या नहीं। याचिकाकर्ता जावेद मोहम्मद ने याचिका दाखिल कर ये आरोप लगाया है कि संवैधानिक रुप से बूचड़खानों के संचालन का जिम्मा नगर निकायों का होता है लेकिन प्रदेश में बीजेपी सरकार ने अवैध बूचड़खाने बंद करने के नाम पर प्रदेश के सभी बूचड़खानों में ताला लगा दिया है जिससे बूचड़खाने के व्यवसाय से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े ढ़ाई करोड़ लोगों का रोजगार छिना है और यूपी में करीब 14 करोड़ लोग अपने मनपसंद भोजन करने के अधिकार से वंचित हुए हैं।

बूचड़खाने बंद होने के बाद उसे खोले जाने की मांग को लेकर हाईकोर्ट में कई याचिकायें दाखिल हुई थीं। इन पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट के जस्टिस ए पी शाही ने 81 पन्ने के अपने फैसले में बूचड़खाने खोलने के लिए लाइसेंस जारी करने और बूचड़खानों की जांच पड़ताल सुप्रीम कोर्ट के ललित नारायण मोदी केस के आधार पर करने का आदेश दिया था। लेकिन राज्य सरकार ने कोर्ट के फैसले के विपरीत अप्रैल 2018 में एक एक्ट बनाकर बूचड़खाने चलाने और उसके मेंटेनेंस का अधिकार नगर निकायों से छीन लिया।

याचिका में इस आधार पर एक्ट को चुनौती दी गई है कि नगर निगम को सभी अधिकार 74 वें संविधान संशोधन के बाद मिला है। इसके साथ ही संविधान के शेड्यूल 12 में यह अधिकार स्थानीय निकायों को ही प्राप्त है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि संविधान प्रदत्त अधिकार पर अतिक्रमण करने का सरकार को कोई अधिकार नहीं है। चीफ जस्टिस डी बी भोसले और जस्टिस यशवन्त वर्मा की खंडपीठ में मामले की सुनवाई हुई।

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