अभी महाराष्ट्र के किसान आंदोलन की आग बुझी भी नहीं कि मध्यप्रदेश में भी उसने विकराल रुप धारण कर लिया। धीरे-धीरे उत्तर भारत के सभी राज्यों में यह फैल सकता है। भारत के किस राज्य में किसान नहीं हैं? ये बात अलग है कि जिन क्षेत्रों में यह आंदोलन उग्र हुआ है, वे अपेक्षाकृत बेहतर हैं। मध्यप्रदेश के मालवा और महाराष्ट्र के नाशिक-पुणें आदि क्षेत्रों की जमीनें उपजाऊ हैं, वहां सिंचाई का इंतजाम भी पुख्ता है और वहां के खेतिहर मराठा और पाटीदार लोगों का हाल उतना बुरा नहीं है जितना मराठवाड़ा और बुंदेलखंड के किसानों का है। फिर भी किसानों के इस आंदोलन के प्रति आम नागरिकों की सहानुभूति इसलिए है कि देश में सचमुच कोई सबसे ज्यादा मेहनत करता है तो वह किसान करता है और सबसे ज्यादा कोई गरीब है तो किसान है। किसान की मुसीबत सिर्फ यह नहीं है कि वह मौसम की अचानक मार झेलता है बल्कि यह भी है कि सब कुछ ठीक होने पर भी उसकी उपज कई बार उसे कौड़ियों के मोल बेचनी पड़ती है या जानवरों को खिलानी पड़ती है। कर्ज में दबा किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसे में किसान आंदोलन क्यों नहीं करेगा लेकिन सवाल यह है कि क्या वह बेलगाम तोड़-फोड़ करने और सरकारी अधिकारियों की पिटाई करने के लिए स्वतंत्र है ? बिल्कुल नहीं। मंदसौर में यही हुआ है। डरी हुई पुलिस ने गोली चला दी, छह लोग मारे गए, यह और भी बुरा हुआ। पुलिस रबर के बुलेट भी चला सकती थी। वस्तुओं की हिंसा और प्राणों की हिंसा में अंतर किया जाना चाहिए। म.प्र. की सरकार न्यायिक जांच करवाएगी, उससे पता चलेगा कि गोलीचालन और रक्तपात का आदेश किसने दिया था ? यह आदेश बहुत ही आपत्तिजनक था। फिलहाल, यह ठीक हुआ कि मंदसौर के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक सहित आठ अधिकारियों का तुरंत तबादला कर दिया गया है। मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने हताहतों को बहुत ज्यादा मुआवजा दे दिया है और 6 लाख किसानों को 6 हजार करोड़ रु. की कर्ज-माफी की घोषणा भी कर दी है। सरकार 10 जून से प्याज 8 रु. किलो के हिसाब से खरीदने को भी तैयार है। वे किसानों से बातचीत के लिए भी तैयार हैं लेकिन विरोधी दल भी अपने ढंग से सक्रिय हैं। वे क्यों न हों ? वे इस किसान असंतोष का राजनीतिक फायदा क्यों नहीं उठाएं ? सभी विरोधी दल उठाते हैं लेकिन हमारे राजनीतिक दल और सरकार किसानों के लिए कुछ ऐसा नहीं कर रही है, जिससे उन्हें स्थायी सुविधा मिले और खेती एक प्रतिष्ठित व्यवसाय माना जाए। उपज के दाम बांधने, फसल बीमा, उत्तम बीज, खाद और सिंचाई के पर्याप्त प्रबंध के बिना इन आंदोलनों को रोका जाना असंभव है। किसानों की दुर्दशा का एक बड़ा कारण नोटबंदी भी रही है। किसानों का लगभग सभी लेन—देन नकद होता है। नोटबंदी के कारण लाखों खेतिहर मजदूर बेकार हुए हैं और किसानों को तंगी झेलनी पड़ी है। यदि केंद्र सरकार पूंजीपतियों का लाखों करोड़ का कर्ज माफ कर सकती है तो इन बेचारे किसानों ने कौनसा पाप किया है कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है। भारत के किसान भयंकर रुप से रोगग्रस्त हो गए हैं। उन पर ऊपरी मरहमपट्टी से काम नहीं चलनेवाला है।

डॉ. वेद प्रताप वैदिक

Courtesy: http://www.enctimes.com

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here