खामोशी से जमाने की हकीकत बयां करती थीं बिमल रॉय की फिल्में, ऐसे ही नहीं कहलाते थे ‘साइलेंट मास्टर’

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Bimal Roy
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बिमल दा एक ऐसे निर्देशक के रूप में हम सबके सामने आते हैं जो सेल्युलाइड के पर्दे पर बड़ी खामोशी से अपने सपनों के रंग भर रहे थे और ऐसे रंग जो 50 के दशक की हकीकत को काले-सफेद रंगों के साथ बयां करते हुये ऐसी आकृतियां गढ़ते जाते हैं जहां मानवीय संवेदनायें अलग अलग रंगों का कैनवास तैयार करती हैं तो वहीं कुछ सपनों और उम्मीदों के बीच समाज के यथार्थवादी सच को भी उकेरती हैं। बंगाली और हिन्दी सिनेमा के महान निर्देशक बिमल दा की फिल्मों में आज के जैसी चकाचौंध नहीं थी बल्कि समाजिक मुद्दों पर बनी वो फिल्में होती थी जिसमें उसके नायक-नायिका तड़क भड़क से दूर थे, जिनकी वाबस्तगी आम लोगों से जुड़ी होती थी जिसमें समाज के हर एक रंग को दिखाने की कोशिश होती थी चाहे समाज में फैला जातिगत भेदभाव हो ,छूआछूत हो या ,सामंती परंपरा को दिखाते हुये एक आम आदमी का दर्द हो या फिर स्त्री मन का पशोपेश हो ,इन सभी को उनकी फिल्मों में दिखाया गया है जो एक नया आयाम गढ़ती हुयी नज़र आती हैं। उनका सिनेमा आज की तरह कमर्शियल नहीं होता था बल्कि यथार्थवादी होता था।

बिमल दा की फिल्में समाज को कोई न कोई सीख देती थीं और फिल्म जगत की नींव को भी यथार्थवादी सिनेमा के जरिये मजबूत कर रही थीं। वो पहले ऐसे निर्देशक थे जिनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर न केवल पहचान दिलाई बल्कि सम्मान भी दिलाया। उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों में ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘मधुमती’, ‘देवदास’ और ‘दो बीघा ज़मीन हिन्दी सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में शुमार होती है, जो उस समय की सामाजिक कुरीतियों और खामियों को उजागर करती है हांलाकि उनके पंसदीदा लेखक हमेशा से शरत चंद्र रहे जिनके उपन्यास पर उन्होनें कई फिल्में बनाई, लेकिन आज हम चर्चा करेंगे बिमल दा की सबसे चर्चित क्लासिक फ़िल्म दो बीघा ज़मीन की,जो इटली के नवयथार्थवादी सिनेमा ख़ास तौर से विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक वित्तोरियो द सिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ से प्रभावित थी। इस फिल्म में बिमल रॉय का बेहतरीन निर्देशन, बलराज साहनी का उम्दा अभिनय, हृषिकेश मुखर्जी की बेहतरीन एडिटिंग और सलिल चौधरी के लेखन और संगीत का कमाल है कि इसकी कहानी आज भी पुरानी नहीं लगती है।

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बिमल रॉय

भारतीय सिनेमा और समाज में इस फ़िल्म के इम्पैक्ट की बात करें तो “दो बीघा ज़मीन” कालजयी फ़िल्म है। जब तक भारत में किसानों का वजूद ज़िंदा रहेगा, तब तक इसके सारे किरदार ज़िंदा रहेंगे। फिल्म सामंतवाद ,पूंजीवाद की न केवल हकीकत से रूबरू कराती है बल्कि उस किसान के दर्द और अपनी ज़मीन को खो देने की उसकी टीस को भी दिखाती है जिसको फिल्म के अंत में बड़ी संजीदगी के साथ दिखाया गया है। इस फिल्म का मुख्य किरदार शंभु यानि (बलराज साहनी) जो कि एक छोटा सा किसान है और जमींदार के कर्ज तले दबा हुआ है। फ़िल्म की शुरुआत शैलेंद्र और सलिल चौधरी के जुगलबंदी गीत ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ से होती है, जब दो वर्ष के लम्बे सूखे के बाद बारिश होती है और सारे गांव वाले पारंपरिक अन्दाज़ में बारिश का स्वागत नृत्य हुये करते हैं। आप इस गीत में महसूस कर सकते हैं कि किस तरह से बारिश से किसान के जीवन की डोर, खुशियां और उम्मीदें जुड़ी हुयी हैं। फ़िल्म का नायक शंभु अपनी पत्नी (निरूपा रॉय) से जब कहता है,”अब बारिश हो गई… बस फसल अच्छी हो जाए तो नाथूराम सोनार के पास से गिरवी रखी तेरी पायल की जोड़ी को छुड़ा लाऊं।” तो ऐसा लगता है मानों उम्मीदों के पंख लग गये हों लेकिन अगले ही फ्रेम में फिल्म में कहानी नया मोड़ लेती है, जब गांव का ज़मींदार अपनी नई मिल लगाने के लिये शहर के कुछ लोगों के साथ शंभु के खेत के पास पहुंचता है औऱ सोचता है कि वह शंभु को ज़मीन बेचने के लिए राज़ी कर लेगा। अगले ही दिन ज़मींदार के दरबार में शंभु की पेशी होती है और शंभु ज़मीन को अपनी मां कहकर ज़मीन बेचने से इंकार कर देता है तो ज़मींदार उसे धमकाते हुए कहता है या तो ज़मीन बेचो या मेरा दिया हुआ कर्जा वापस करो, बस यहीं से कहानी नया रंग लेती है। अपनी ज़मीन से दूर जाकर बड़े शहर में किसान शम्भु अपनी किस्मत को आज़माने जाता है वो भी महज़ 65 रुपए के कर्ज के लिये अपने गांव ,घर से दूर पलायन करता हुआ किसान कब अपने छोटे से बेटे के साथ बड़े से शहर में मज़दूर बन जाता है अब उसके हाथ में हल नहीं बल्कि रिक्शा गाड़ी है जिससे वो अपनी तकदीर को बदलने चला है।

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बिमल रॉय

गांव से निकलते वक़्त एक बेहतरीन गीत ‘धरती कहे पुकार के, मौसम बीता जाए’ ये उम्मीद दिलाता है कि शंभु वापस आयेगा और अपनी ज़मीन को छुड़ा लेगा। शहर में जीवन के लिए तमाम संघर्ष और उसके साथ ही दिन गिनते हुए पैसे बचाने और समय से कर्ज़ चुकाने का दबाव लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी ईमानदारी को बरकरार रखने की बहुत सारी जद्दोजहद इस सबका फिल्मांकंन इस तरह से किया गया है कि आप भी अपने आप को उसके दर्द से अलग नहीं कर पायेंगे। फ़िल्म के सबसे ख़बसूरत गीत ‘अजब तोरी दुनिया ओह मोरे रामा’ में शैलेंद्र का चिरपरिचित अंदाज जहां वो उस कहानी को एक ऐसा आयाम देते है जिसमें दर्द है ,दुख है तकलीफ है और दुनिया की वो हकीकत है जहां मानवीय मूल्यों का कोई मोल नही है। यह गीत आपको बताता है कि मज़दूरों द्वारा बनाई गई इस दुनिया में मज़दूरों के लिए ही कोई जगह नहीं है। मज़दूरों का शोषण किस हद तक होता है और कब तक होता है। इस गीतके ज़रिये दिखाया गया है।


शहर की घुटन भरी आबोहवा,मुफलिसी की मार शंभु पर इस कदर पड़ती है कि वो बीमार हो जाता है तब शंभु का बेटा अपनी मां को खत लिखता है कि बापू की तबियत बहुत ख़राब है, आप शहर आ जाओ…शंभु की पत्नी निरूपा रॉय अपने बीमार ससुर को छोड़कर शहर जाती है इस बात से अंजान कि ये शहर उसको निगल जाने वाला है वो शहर आते ही ग़लत आदमी के द्वारा शोषण की शिकार बनती है और अपने बचाव में भागते हुये सड़क पर बेहोश होकर गिर जाती है और जब हॉस्पिटल लेकर जाने के लिए लोग रिक्शा ढूंढ़ते हैं तो संयोग से शंभु वहां आ जाता है, जिसने कभी नहीं सोचा था कि शहर में पहली बार उसकी पत्नी की मुलाक़ात इस तरह से होगी। शंभु 50 रुपए की रक़म किसी तरह जुटा कर अपने गांव पहुंचता है तो क्या देखता है कि उसकी ज़मीन नीलाम हो गयी है,उसके बुज़ुर्ग पिता की मौत हो गयी है औऱ इसकी छोटी सी दो बीघा ज़मीन पर एक मिल तन कर खड़ी है जो उसकी तकदीर पर तंज करती नज़र आती है। फिल्म के अंतिम सीन में जब वह कंटीले तारों के बीच से अंदर हाथ बढ़ाकर एक मुट्ठी मिट्टी उठाता है तो वहां पर पहरा दे रहा चौकीदार उसे चोर कहकर वह मिट्टी वहीं छोड़ने के लिए कहता है। फ़िल्म के आख़िर में इस तरह से शंभु को उसकी दो बीघा ज़मीन की एक मुट्ठी मिट्टी भी नसीब नहीं होती है।
भारत की सामाजिक रचना के परिवेश में फ़िल्म दो बीघा ज़मीन हर दौर की कहानी लगती है। फ़िल्म को कालजयी बनाने में निर्देशन, गीत, संगीत और अभिनय का बेहतरीन योगदान है ‘दो बीघा ज़मीन’ वाक़ई बिमल रॉय की एक शाहकार फ़िल्म है। जो सेल्युलाइड के पर्दे पर एक संवेदनशील कविता लिखती है यह बिमल रॉय की तीसरी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के साथ उन्होंने अपनी फ़िल्म कंपनी ‘बिमल रॉय प्रॉडक्शन’ की शुरूआत की।

अपनी इस फ़िल्म के ज़रिए उन्होंने किसानों और उनकी ज़मीन के सवाल उठाए थे, उनका जवाब आज भी मुल्क के कर्णधारों के पास नहीं है। ख़ेती-किसानी, किसानों के लिए दिन-ब-दिन घाटे का सौदा बनती जा रही है। ज़्यादातर जगह वह किसान से ख़ेतिहर मज़दूर बनकर रह गया है। आज गांवों में भले ही पहले की तरह साहूकार और जमींदार नहीं हैं, लेकिन उनकी जगह कॉर्पोरेट फार्मिंग ने ली है, वह उनसे भी ख़तरनाक हैं। साल 1953 में प्रदर्शित ‘दो बीघा ज़मीन’ एक यथार्थवादी फ़िल्म थी, जो व्यावसायिक तौर पर भले ही कामयाब नहीं हुई। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस फ़िल्म की काफ़ी सराहना हुई। इस फिल्म के एक-एक सीन को बड़ी संजीदगी से फिल्माया गया है फिल्म के एक सीन में लीड एक्टर बलराज साहनी को नीचे बैठकर जमींदार (मुराद) के पैरों में गिरकर अपने जमीन के टुकड़े के लिए गुहार लगानी थी। बिमल रॉय ने मुराद से चुपके से कहा कि वह साहनी की पकड़ से अपने पैर झटके और खुद को कैमरे से बाहर कर दे, इसके बारे में साहनी को पता नहीं था। टेक के दौरान मुराद का पैर साहनी के चेहरे पर लग जाता है। अपमानित और आहत बलराज़ साहनी कट के बाद रोने लगे तो मुराद दौड़कर आए और साहनी से माफी मांगते हुए सारा किस्सा बयां कर दिया। ये शॉट बेहद शानदार निकला। इस फिल्म का रूस, चीन, फ्रांस, स्विटजरलैंड जैसे कई देशों में प्रदर्शन हुआ। फ़िल्म को कान्स और कार्लोवी वारी के अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म उत्सवों में सम्मानित किया गया।

बिमल रॉय ने अपना करियर कलकत्ता के न्यू थियेटर स्टूडियो से एक कैमरामैन के तौर पर शुरू किया था चूंकि वह बतौर निर्देशक फिल्म बनाना चाहते थे, लिहाजा स्टूडियो के मालिक बी एन सरकार से मिले और इसके लिए इजाजत मांगी। वह तैयार तो हो गए लेकिन एक शर्त रख दी कि बिमल रॉय दूसरी फिल्मों के बचे हुए रील ही इस्तेमाल करेंगे। बिमल ने इसे चुनौती की तरह स्वीकार किया और बची हुई रीलों पर साल 1944 में फिल्म ‘उदार पाथे’ बनाई जो बेहद पसंद की गई। बिमल दा को बिमल रॉय प्रोडक्शंस बनाने का ख्याल अकीरा कुरोसावा की फिल्म ‘Rashomon’ देखने के बाद आया था। बॉम्बे के इरोज सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी समेत कुछ लोगों के साथ फिल्म देख कर बिमल रॉय बस से वापस मलाड लौट रहे थे तो ऋषिकेश ने पूछा कि क्या ऐसी शानदार फिल्म बन सकती है तो बिमल रॉय ने हामी भरी और चलते बस में बिमल रॉय प्रोडक्शंस की नीव पड़ी और इसी के साथ फिल्म बनी “दो बीघा ज़मीन” हिंदी सिनेमा की नायिका को एक सशक्त पहचान दिलाने वाले निर्देशकों में बिमल रॉय का नाम सबसे पहले आता है। 11 फिल्मफेयर पुरस्कार, दो राष्ट्रीय पुरस्कार और कान्स फिल्म फेस्टिवल में अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले बिमल रॉय ने पुनर्जन्म की कहानी पर मधुमती बनाई और इस फिल्म ने इतने पुरस्कार जीते कि करीब चार दशक तो कोई उनकी बराबरी नहीं कर पाया।

बिमल रॉय की लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके कैमरे के आगे आने के लिए उस वक्त की बडी़-बडी़ एक्ट्रेस मरा करती थीं। बिमल दा ने सिर्फ सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों को ही अपनी फिल्म के लिए चुना ।

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