‘दिव्या’ के जरिए मानवीय विश्वास और विधान में स्त्री स्वतंत्रता को स्थापित करते हैं लेखक यशपाल

0
53

क्या स्त्री अपने नारीत्व या सतीत्व को त्यागकर ही स्वतंत्र हो सकती है? या अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना गृहस्थी से दूर जाकर ही संभव है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिस पर अमूमन हमारे समाज में चिंतन होता रहता है। हिंदी के जानेमाने लेखक यशपाल का उपन्यास ‘दिव्या’ इन्हीं सवालों का जवाब देता है। ये रचना बताती है कि पुरुष और स्त्री परस्पर आश्रित हैं और एक दूसरे के अधीन हैं। नारी स्वतंत्रता के प्रश्न पर ये उपन्यास सोचने को मजबूर करता है।

यह उपन्यास 1945 में प्रकाशित हुआ था। लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास 13 अध्याय में विभाजित है। बौद्धकाल को दिखाता यह उपन्यास शुरू होता है मधुपर्व से जहां मद्र गणराज्य की सागल नगरी के धर्मस्थ महापंडित देवशर्मा की पोती दिव्या को उसकी कला के लिए सरस्वती पुत्री उपाधि से सम्मानित किया जाता है। वहीं महाश्रेष्ठी प्रेस्थ के पुत्र पृथुसेन को सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी का सम्मान मिलता है। हालांकि पृथुसेन को एक वर्ग पसंद नहीं करता क्योंकि पृथुसेन के पिता एक समय में दास थे। इस उपन्यास में तत्कालीन समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था पर भी टिप्पणी की गयी है। साथ ही दास प्रथा का भी उल्लेख मिलता है।

समय के साथ दिव्या और पृथुसेन एक दूसरे को प्रेम करने लगते हैं। इस बीच दिव्या गर्भवती हो जाती है। हालांकि पृथुसेन के पिता प्रेस्थ उसे समझाते हैं कि वह यवन गणपति की पोती सीरो से शादी करे। पृथुसेन ऐसा ही करता है। दिव्या को जैसे ही ज्ञात होता है कि पृथुसेन अब उससे मिलना नहीं चाहता वह नगरी छोड़ने का निर्णय लेती है। दुर्भाग्यवश दिव्या और उसके शिशु को एक ब्राह्मण परिवार को दास के रूप में बेच दिया जाता है। लेकिन वह परिवार उस पर बहुत अत्याचार करता है।

यहां दिव्या को एहसास होता है कि स्त्री, बेटी,बहन, पत्नी और मां के रूप में परतंत्र ही है। एक वेश्या ही है जो पूरी तरह से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर है। विवश होकर दिव्या आत्महत्या की कोशिश करती है तभी शूरसेन प्रदेश की राजनर्तकी रत्नप्रभा दिव्या को अपनी शरण में लेती है और उसे एक नया नाम अंशुमाला देती है। समय के साथ-साथ शूरसेन प्रदेश में अंशुमाला की कला की ख्याति फैलती जाती है।

इस बीच गणपरिषद के संवाहक के पुत्र आचार्य रुद्रधीर और सागल की राजनर्तकी मल्लिका मिलकर एक योजना बनाते हैं और सेनापति पृथुसेन को घेर लिया जाता है और वह भिक्षुक बन जाता है। उपन्यास में मल्लिका अपने उत्तराधिकारी की खोज में निकल पड़ती है और उसकी भेंट अंशुमाला (दिव्या) से होती है। अंत में मल्लिका दिव्या को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती है लेकिन समाज दिव्या के ब्राह्मण होने के चलते इसे स्वीकारता नहीं है। आखिर में पृथुसेन और रुद्रधीर के प्रस्तावों को दिव्या अस्वीकार कर नगरी के सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार मारिश के साथ जाना स्वीकार करती है।

इस उपन्यास के कुछ संवाद आपको गहराई से सोचने पर विवश करते हैं। जैसे, ” …देवी के नारीत्व की कामना में वह अपना पुरुषत्व अर्पण करता है। वह आश्रय का आदान-प्रदान चाहता है। वह नश्वर जीवन में संतोष की अनुभूति दे सकता है। ”’एक अन्य संवाद, ”…. कुलमाता और कुलमहादेवी निरादृत वेश्या की भांति स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं हैं।… नारी का धर्म निर्वाण नहीं,सृष्टि है।”

लेखक ने खुद लिखा है कि यह उपन्यास एक ऐतिहासिक कल्पना है। यशपाल ने इतिहास का सहारा क्यों लिया इसका जवाब वे खुद देते हैं। यशपाल कहते हैं कि इतिहास विश्वास की नहीं विश्लेषण की वस्तु है। अपनी कल्पना शक्ति के जरिए लेखक ऐसी घटनाओं को घटित करता है जिसे वह समाज में चाहता है। यशपाल कहते हैं कि मनुष्य कर्ता है। उसका विश्वास और उसका रचा विधान उससे भी ऊपर है। यशपाल दिव्या में उसी विश्वास और विधान में बदलाव करते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here