रोमान्स और राजनीति का मिश्रण है यशपाल का ‘दादा कामरेड’, यहां पढ़ें इसकी समीक्षा…

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dada comrade
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‘दादा कामरेड’ हिंदी साहित्य के जाने माने लेखक यशपाल का उपन्यास है। जिसे उनका पहला उपन्यास माना जाता है। यह उपन्यास आजादी से पहले लिखा गया था। जिसकी तारीख 1941 के आस-पास है। इस उपन्यास को हिंदी साहित्य में इसलिए भी अहम माना जाता है क्योंकि ये चुनिंदा राजनीतिक उपन्यासों में से एक है। यह उपन्यास आजादी और बराबरी की बात करता है। वहीं स्त्री पुरुष संबंधों पर भी रोशनी डालता है।

यशपाल के दादा कामरेड का मुख्य किरदार हरीश है, जो कि एक क्रांतिकारी है और लाहौर में रहता है। क्रांतिकारी हरीश की अपने साथियों से असहमति हो जाती है। इसके बाद वह मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने लगता है। हालांकि बाद में पुलिस की गिरफ्त में आ जाता है और उसे सजा हो जाती है। दादा कामरेड उपन्यास में एक लव स्टोरी भी है। हरीश की प्रेमिका और कॉमरेड शैलबाला है। जो कि समाज की मान्यताओं के खिलाफ जाती है।

यशपाल के साहित्य की एक खूबी ये रही है कि उसमें वर्ग संघर्ष के बारे में खुलकर बताया गया है। दादा कामरेड उपन्यास में भी एक अध्याय है ‘मजदूर का घर’। उसी का एक संवाद है, ”हेड मिस्त्री ने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। मेरा मौका था फिटर बनने का। तीन साल से वह मेरी तरक्की रोके है। पिछले बैसाख में मैंने उसके आगे हाथ जोड़े,मिन्नत की। तू जानता है अब बुढ़ापे में ज्यादा मेहनत नहीं होती। फिर यह लड़की और हो गयी। एक लड़का है। कुछ तरक्की हो तो काम चले।”

उपन्यास में बताया गया है कि कैसे मजदूर वर्ग का शोषण हो रहा है और यह तबका गरीबी में जीने को मजबूर है। एक संवाद और है, ”बच्चा रोज रोज काटनी पड़े तो पता चले। यहां मजदूर चार पैसे में रात काटते हैं। रजाई बनती है पांच रुपये में। जब तक पांच होंगे तब तक बंदा जहन्नुम पहुंच जाएगा।”

यशपाल के इस उपन्यास में मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी स्पष्ट दिखता है। इसे इस बात से समझिए, ” अपने मन की दुविधा भूल हरीश सोचने लगा- मजदूरों की इस शक्ति को जो आकाश में गरजने वाली बिजली की भांति दुर्दमनीय है, किस प्रकार के संगठन द्वारा क्रांति के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है?”

दादा कामरेड में लेखक ने स्त्री पुरुष संबंधों पर खुलकर बात की है। नये ढंग की लड़की अध्याय में लेखक लिखते हैं, ” निस्संकोच का अर्थ कहां निर्भीकता और कहां निर्लज्जता हो जाती है, इसे पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक समझती हैं। पुरुष प्राय: तर्क करता है परंतु स्त्री अनुभूति द्वारा परिणाम पर पहुंच जाती है। ”

एक संवाद और है, ” यदि स्त्री को किसी न किसी की बन कर रहना है तो उसकी स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ? स्वतंत्रता शायद इसी बात की है कि एक बार अपना मालिक चुन ले परंतु गुलाम उसे जरूर बनना है।” पुरुष की स्त्री के प्रति क्या सोच है उसे यशपाल मनुष्य अध्याय में लिखते हैं, ” यदि पुरुष के जीवन विकास में स्त्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति ये आकर्षण पैदा क्यों करती ? ”

समाज में हो रही नाइंसाफी पर लेखक ने उपन्यास में टिप्पणी की है, ” … न्याय कैसा है! कुछ आज्ञाएं और नियम पूंजीपति श्रेणी की व्यवस्था ने अपनी श्रेणी के अधिकार और शासन को कायम रखने के लिए जारी की है। इस व्यवस्था का जारी रहना ही सरकार और इस अदालत की दृष्टि में न्याय है। ”

अगर आप रोमान्स और राजनीति विषयों में दिलचस्पी रखते हैं तो यह उपन्यास पढ़ सकते हैं।

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