जिंदगियों और उनके सपनों के बसने और उजड़ने की दास्तां है ‘कांधों पर घर’

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कोई भी शख्स अपना घर-बार, अपनी जड़ों को छोड़ शहरों की तरफ क्यों आता है? शहर उसे ऐसा क्या देता है जिसके लिए वह अपनों को भी छोड़ चले आता है इस कंक्रीट में रहने? इस बात का जवाब अधिकतरों के मुंह से यही निकलेगा कि ये रोजगार का सवाल है जो किसी को भी बड़े शहरों में खींच लाता है। पलायन की समस्या, प्रवास का प्रश्न एक ऐसा विषय है जिस पर अधिकतर लोग चिंतन तो करते हैं लेकिन आज भी हम इस विकास से जुड़ी समस्या का कोई उचित समाधान नहीं खोज सके हैं।

हिंदी लेखिका प्रज्ञा का उपन्यास है ‘कांधों पर घर’। जो कि दिल्ली शहर में रह रहे प्रवासियों की कहानी कहता है। अपना घर द्वार छोड़ दिल्ली में रहने आए लोगों के सपने देखने, उनके साकार होने और फिर उनको ढहाए जाने की कहानी लेखिका ने कही है। उपन्यास के केंद्र में है यमुना पुस्ता। दरअसल दिल्ली में बहने वाली यमुना नदी के दोनों किनारों पर रोजी रोटी की तलाश में राजधानी आए लोगों ने अपने आशियाने बनाए थे। एक समय जिस जमीन पर किसानी होती थी उन खेतों की जगह लोगों के घरों ने ली। रोजगार के प्रश्न ने इस क्षेत्र में कुछ दशकों में ही एक बड़ी इंसानी बस्ती का रूप ले लिया। लेकिन साल 2004 में दिल्ली के सौंदर्यीकरण के नाम पर लाखों लोगों के घरों पर बुलडोजर चला दिया गया था। लेखिका प्रज्ञा ने यमुना पुस्ता के इन्हीं पीड़ितों की कहानी अपने उपन्यास में कही है।

वैसे तो यमुना पुस्ता की कहानी कहने में लेखिका ने बहुत से पात्रों को जन्म दिया है लेकिन इस उपन्यास में नायिका की भूमिका में पूनम है। कानपुर की पूनम शादी के बाद बदायूं अपने सुसराल आती है लेकिन जल्द ही उसे ससुराल में बंटवारे की हकीकत का सामना करना पड़ता है। इसके बाद वह अपने पति संग नए सपनों को लेकर दिल्ली आ जाती है। पूनम एक जागरूक महिला है और शिक्षा के महत्व को समझती है। यमुना पुस्ता में कुछ समय रहने के बाद पूनम और उसका पति बिहारी बिल्डिंग के निवासी हो जाते हैं। एक प्रवासी के लिए शहर में अपना घर होना जो सुख देता है उसका वर्णन लेखिका ने बहुत अच्छे तरीके से किया है।

दिल्ली या ऐसे ही दूसरे शहरों में बसे प्रवासियों के बीच भले ही पृष्ठभूमि के लिहाज से कोई समानता न हो लेकिन वह शहर में अपना खुद का एक परिवार बना लेते हैं। ऐसा ही कुछ उपन्यास में होता है। पूनम अब यमुना पुस्ता और बिहारी बिल्डिंग के लोगों को ही अपना परिवार समझने लगती है। उपन्यास में आप देखेंगे कि सामाजिक सरोकार समाज के सिर्फ एक वर्ग की बपौती नहीं होते हैं। यहां समाजसेवी सुगन्धा और पत्रकार उमा जैसे लोग भी हैं। जो कि वर्गगत भेदभाव से ऊपर उठकर सोचते हैं। सुगन्धा एक एनजीओ से जुड़ी हैं। यह एनजीओ यमुना पुस्ता के लोगों की भलाई के लिए काम करता है। सुगन्धा पूनम को प्रेरित करती हैं कि वह बच्चों को पढ़ाए।

शहरी विकास की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि इसमें उस तबके का ध्यान बिल्कुल नहीं रखा जाता जो कि इस विकास का बोझ अपने कंधे पर उठाता है। मेट्रो निर्माण के लिए पूनम के अस्थायी स्कूल को गिरा दिया जाता है। हालांकि वह पढ़ाने का काम रोकती नहीं है और लगी रहती है। इस उपन्यास की विशेषता यह भी है यह समाज के सबसे निचले पायदान के प्रति बाकी समाज की धारणा का भी पर्दाफाश करता है। जैसे कि शहर के बाकी लोग यहां रहने वालों को जन्म से अपराधी समझते हैं और यमुना पुस्ता को क्राइम सेंटर मानते हैं। एक किशोर परवेज की पुलिस हिरासत में हत्या इसका बड़ा उदाहरण बनती है।

परवेज के बहाने लेखिका बताती हैं कि कैसे पुलिस से लेकर मीडिया तक इन लोगों के प्रति असंवेदनशील है और पूर्वाग्रह से ग्रसित है। उपन्यास का अंत एक ऐसी त्रासदी को बताता है जो हमारी शहरी व्यवस्था का सबसे क्रूर चेहरा है। सरकार यमुना पुस्ता को अवैध बताते हुए इसे हटाने का एलान करती है। बीते वर्षों में यहां के लोगों को जो हासिल था उसे एक झटके में खत्म कर दिया जाता है। सर से छत तो जाती ही है साथ ही रोजगार के साधन भी खत्म हो जाते हैं। यमुना पुस्ता के बाशिंदों का पुनर्वास ऐसी जगह कराया जाता है जहां बुनियादी चीजों का अभाव रहता है। कुलमिलाकर यह किताब इंसानी जिंदगियों और उनके सपनों के बसने और उजड़ने के बारे में है।

वैसे तो सरकारी आंकड़े कहते हैं कि यमुना पुस्ता हटाए जाने के 2 दशक बाद सभी लोगों को घर नहीं मिला है। वे आज भी दिल्ली की सड़कों पर बेघर हालत में मिल जाएंगे। लेकिन दिल्ली शहर के लोगों को इस मानवीय त्रासदी के बारे में जरूर जानना चाहिए। जो बताने का काम यह उपन्यास करता है।

किताब के बारे में
लेखिका- प्रज्ञा
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
पेज संख्या- 248
मूल्य- 350 रुपये

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