धर्म की आड़ में छिपे स्वार्थों का पर्दाफाश करता है ‘मैं बोरिशाइल्ला’ उपन्यास

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लेखिका महुआ माजी का उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ धार्मिक उन्माद की आड़ में छिपे निहित स्वार्थों का पर्दाफाश करने वाला उपन्यास है। ये रचना बताती है कि कैसे कुछ लोग अपने स्वार्थों को साधने के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं। धर्म से इतर संस्कृति अस्तित्व रखती है। लेखिका ने बांग्लादेश के उदय की कहानी के बहाने सत्ता के स्वार्थ और अपनी संस्कृति की हिफाजत की लड़ाई की कहानी कही है। धर्म के नाम पर पाकिस्तान बनने और फिर बांग्लादेश बनना ये बताता है कि एक धर्म के नाम पर आप राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते।

साल 2006 में आया यह उपन्यास बोरिशाल (बांग्लादेश) में रहने वाले केष्टो घोष की कहानी कहता है। केष्टो घोष की पहचान बोरिशाल से है इसलिए वह खुद को बोरिशाइल्ला कहता है। वैसे तो यह उपन्यास 1930 के समय के बंगाल से शुरू होता है लेकिन लेखिका पृष्ठभूमि देते हुए बताती हैं कि कवि नजरुल इस्लाम और रवींद्रनाथ टैगोर का बंगाल सांस्कृतिक रूप से कितना समृद्ध रहा है। भले यहां बहुसंख्यक मुसलमान हों लेकिन उनके भीतर हिंदू और बौद्ध संस्कृति की झलक आसानी से देखने को मिल जाती है। बोरिशाल ,जहां मुख्य पात्र केष्टो रहता है, को एक समय में चंद्रद्वीप के नाम से जाना जाता था। बाद में यह दिल्ली सल्तनत और बंगाल सल्तनत का हिस्सा रहा। 1757 में अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई क्या जीती पूरे भारत पर अपना शासन जमा लिया। 1905 में अंग्रेजों के बंग भंग के फैसले का आम जनता ने जमकर विरोध किया था।

उपन्यास पढ़कर पता चलता है कि कैसे 40 सालों में बंगाल में धार्मिक उन्माद को हवा दी गई। क्षेत्र में रह रहे हिंदू जमींदार और मुस्लिम किसानों के आर्थिक भेद को मुस्लिम लीग ने मजहबी रंग दिया और जमकर हिंसा हुई। बंटवारा हुआ तो बोरिशाल पूर्वी पाकिस्तान हो गया। देश विभाजन के बाद भी केष्टो के पिता अपनी मातृभूमि बोरिशाल को नहीं छोड़ते हैं और वहीं रहते हैं।

देश का बंटवारा हुआ लेकिन फिर भी पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं के प्रति हिंसा नहीं रुकी। उपन्यास में केष्टो के बोरिशाल समेत पूर्वी पाकिस्तान में धार्मिक हिंसा भड़क उठती है। हजारों हिंदू मारे जाते हैं और कई लापता हो जाते हैं। इस उपन्यास में लेखिका ने बहुत अच्छा शोध किया है जिसका उदाहरण है कि उन्होंने मुलादी बंदरगाह नरसंहार का जिक्र किया है जो बोरिशाल में ही हुआ था। केष्टो भी हिंसा के इस दंश को झेलता है। उसे लगने लगता है कि पाकिस्तान में उसके लिए अब कोई जगह नहीं वह किस्मत आजमाने दिल्ली और फिर बंबई चला जाता है।

हालांकि बाद में केष्टो पाकिस्तान लौट आता है। वह मिस्टर ईस्ट पाकिस्तान बनता है। इस तरह उसके और उसके परिवार की जिंदगी पटरी पर लौट आती है और वह शादी करने के बारे में सोचने लगता है। इस बीच पाकिस्तान में सैनिक शासन है। पहले अयूब खान फिर उसके बाद याहया खाने के हाथ सत्ता आती है। उपन्यास में पाठक को पता चलता है कि किस तरह से पूर्वी पाकिस्तान के साथ न सिर्फ आर्थिक भेदभाव बल्कि सांस्कृतिक और भाषाई भेदभाव होता है। 1970 के चुनाव में आवामी लीग की बड़ी जीत के बाद भी उसे सत्ता नहीं सौंपी जाती है। बंगालियों की मांगों को दबाने के लिए याहया खान सैनिक ताकत का इस्तेमाल करते हैं। मुजीब और बंगवासी असहयोग करते हैं।

उपन्यास में मुजीब-उर-रहमान के 7 मार्च 1971 के भाषण का बहुत बार जिक्र होता है। जिसमें उन्होंने कहा था कि यह मुक्ति संग्राम है। पाकिस्तानी सेना देश के पूर्वी हिस्से में हत्या, यंत्रणा, बलात्कार का दमन चक्र शुरू कर देती है। न सिर्फ हिंदुओं बल्कि बंगाली मुसलमानों पर अत्याचार किए जाते हैं। इस बीच देश के युवा मुक्तिवाहिनी से जुड़ने लगते हैं। हिंसा में अपनों से बिछुड़ने के बाद केष्टो मुक्तिवाहिनी का हिस्सा बनने के लिए भारत स्थित प्रशिक्षण शिविर जाता है। इसके बाद वह पाकिस्तानी सेना के खिलाफ कई सारे ऑपरेशन को अंजाम देता है। यहां लेखिका ने जिस तरह हर ऑपरेशन का जिक्र किया है वह पढ़ने वाले को रोमांच से भर देता है जैसे कि पाठक खुद जंग के मैदान में है। महीनों चले गुरिल्ला युद्ध में मुक्तिवाहिनी का अधिकार क्षेत्र बढ़ने लगता है।

भारत में बढ़ते शरणार्थी संकट के बीच दिसंबर 1971 में भारत युद्ध में कूद पड़ता है और पाकिस्तानी सेना सरेंडर कर देती है। तकरीबन 30 लाख बंगाली बांग्लादेश के लिए शहीद होते हैं। इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने बलात्कार का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर किया था और लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। उपन्यास का किरदार केष्टो भी इस युद्ध में अपना सबकुछ खो देता है और अकेला रह जाता है। यहां तक कि वह अपने दोनों पैर भी गंवा देता है।

बांग्लादेश आजाद तो होता है लेकिन राजनीतिक स्वार्थ से लोग ऊपर नहीं उठ पाते हैं। मुजीबर-उर-रहमान के बाद जिया-उर-रहमान की भी हत्या हो जाती है। 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरती है तो बांग्लादेश में भी जमकर हिंसा होती है। बोरिशाल में रह रहे केष्टो जो कि अब एक वृद्ध हैं , जो कि एक मुक्ति योद्धा हैं, अपने आंखों के सामने अपने घर को दंगाइयों द्वारा जलाए जाते देखते हैं। वह कहते हैं कि जीवन सिर्फ आग की विभीषिका है और कुछ नहीं।

इस उपन्यास की खास बात है कि इसमें बांग्लादेश के परिवेश का बारीकी से उल्लेख किया गया है। जैसे गंगा और उसकी सहायक नदियां, जंगल-हरी भरी जमीन इत्यादि। यहां की जमीन कितनी उपजाऊ है और आम, कटहल, बांस, सुपारी, नारियल इसकी संपदा हैं। ये सब पढ़ पाठक एक तरह से बोरिशाल पहुंच जाता है। यही लेखिका की सफलता है।

किताब के बारे में

पेज संख्या- 400
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 295 रुपये (पेपरबैक)

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