UP Election 2022: वर्तमान राजनीति में अगर अब सुचिता, ईमानदारी और निष्पक्षता की उम्मीद की जाए तो शायद यह खुद से बेइमानी करने जैसा मामला होगा। स्वच्छ और स्वस्थ्य राजनीति के किस्से अब बीते दशकों की बात हो चुके हैं, जिन्हें हम केवल किताबों में पढ़कर संतोष कर सकते हैं।
सत्ता का समीकरण साधने के लिए राजनीतिक दलों ने मुद्दों, जनसमस्याओं और जनकल्याणकारी भावना की लगभग तिलांजलि दे दी है। राजनीतिक विद्रूपदा इस कदर हावी है कि गद्दी पाने के लिए दल और उनके नेता कथित छद्म-विकासवादी चोला पहनकर जनता के बीच बड़ी बेशर्मी से वोट मांगने के लिए ‘पहुंच’ जाते हैं।

मैंने‘पहुंच’ जाने को इसलिए लिखा क्योंकि चुनाव के वक्त राजनीतिक दलों की सक्रियता 5 साल के एक पूरे कार्यकाल के दौरान सबसे ज्यादा रहती है। फिर चाहे सत्ताधारी दल हो या विपक्ष, चुनाव हो जाने के बाद वो कुछ उसी तरह से शिथिल हो जाते हैं, जैसे रक्त पीकर जोंक। लेकिन जैसे ही चुनाव आयोग की रणभेरी बजती है, तारीख नजदीक आती है, सभी पक्ष-प्रतिपक्ष चुनावी मैदान को महाभारत का रण मानकर खुद को पांडव बताते हुए सामने वाले कौरव घोषित करने लगते हैं।
पूर्वांचल में बिना बाहुबल के राजनीति असंभव है
पूर्वांचल की राजनीति में पहले धनबल का प्रवेश हुआ और फिर चुपके से बाहुबल भी पीछे-पीछे आ धमका। उत्तर प्रदेश और उसमें भी खासकर पूर्वांचल में बिना बाहुबल के राजनीति असंभव है क्योंकि सत्ता के समीकरण को बिठाने के लिए या फिर अपनी धमक को बरकार रखने के लिए विभिन्न राजनैतिक दल समय-समय इन बाहुबलियों की मदद लेते हैं और बदले में अपनी सरपरस्ती में इन्हें फलने-फूलने का भरपूर मौका देते हैं।

यूपी की राजनीति में बाहुबल के दखल को समझने के लिए आपको बहुत पुराने इतिहास को खंगालने के जरूरत नहीं है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2017 में जब यूपी का पिछला विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ था तो उस वक्त यूपी विधानसभा चुनाव जीतने वाले कुल 403 विधायकों में से 143माननीय विधायकों के खिलाफ विभिन्न मामलों में आपराधिक मुकदमे दर्ज थे। इसमें भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक 114,समाजवादी पार्टी के 14,बहुजन समाज पार्टी के 05 और कांग्रेस के 01 विधायक पर केस दर्ज था बाकी बचे 09 अन्य विधायक किसी छोटे दल के थे या फिर निर्दलीय थे।
साल 2018 में 1765 सांसदों-विधायकों के ख़िलाफ 3816 आपराधिक मुक़दमे दर्ज थे
एडीआर की इस रिपोर्ट के मुताबिक जिन 143 विधायकों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज थे। उसमें से 105 माननीय विधायक ऐसे थे जिन पर हत्या,हत्या के प्रयास,महिला से छेड़छाड़,हेराफेरी जैसे अन्य गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज थे। एडीआर की एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया है कि मार्च 2018 में केंद्र सरकार ने अपने एक हलफ़नामे में बताया था कि उस वक़्त देश में चुने हुए जन प्रतिनिधियों में से कुल 1765 सांसदों-विधायकों के ख़िलाफ़ 3816 आपराधिक मुक़दमे दर्ज थे।

इस रिपोर्ट में सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह सामने आया कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं में 248 निर्वाचित सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ दर्ज 565 आपराधिक मुक़दमों के साथ उत्तर प्रदेश देश में पहले स्थान पर था।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में विधानसभा की लगभग 160 सीटें हैं,जिनमें लगभग-लगभग सभी सीटों पर किसी न किसी बाहुबली नेता का प्रभाव या उसका वर्चस्व माना जाता है। कथिततौर पर यहां तक कहा जाता है कि एक माफिया डॉन अपने इलाके की 10 से 12 सीटों पर वोट को इधर से उधर करने में गजब की महारथ रखता है। यही कारण है कि राजनीतिक दल अपने मतदाताओं से ज्यादा इन बाहुबलियों पर भरोसा जताते हैं।
पूर्वांचल के बाहुबली चुनावी समीकरण को अपने दम पर प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं
अगर हम यह कहें कि पूर्वांचल के बाहुबली चुनावी नतीजों और राजनीतिक समीकरण को अपने दम पर प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं तो इसमें कहीं से भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अभी बीते दिनों सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने समाजवादी पार्टी के साथ मऊ में विशाल रैली की।

इस रैली के बाद ओमप्रकाश राजभर ने जिस अंदाज में बांदा जेल में बंद पूर्वांचल के माफिया डॉन मुख्तार असारी से मुलाकात की और उसके बाद मीडिया में मुख्तार के साथ अपने दशकों पुराने संबंधों का हवाला दिया। उससे साफ जाहिर होता है कि पूर्वांचल में बाहुबलियों का चुनावी प्रयोग कोई नवाचार की बात नहीं है।
यूपी में बाहुबलियों का प्रवेश 80 के दशक में शुरू हुआ
अब अगर इतिहास की परतों को खंगालें तो यूपी में बाहुबलियों का प्रवेश 80 के दशक में शुरू होता हुआ दिखाई देता है। उस वक्त सूबे में गोरखपुर के ठेठ गवई अंदाज वाले बीरबहादुर सिंह की कांग्रेस की सरकार थी और उनके वक्त में बाहुबलियों ने राजनीति में ऐसा पैर जमाया कि कांग्रेस का पैर ही यूपी की राजनीति से उखड़ा गया। वो दिन था और आज का दिन है, कांग्रेस उस समय से यूपी में सत्ताविहीन है।

80 के मध्यांतर में राजीव गांधी ने यूपी की राजनीति से मांडा नरेश विश्वनाथ प्रताप सिंह को यूपी से बुलाकर केंद्र में मंत्री बना दिया और कमान दे दी देसज परंपरा के ध्वजवाहक बीरबहादुर सिंह को। नतीजा की गोरखपुर में जेपी आंदोलन से राजनीति में अपनी किस्मत चमकाने की फिराक में लगे गोरखपुर के ‘हाता वाले बाबा’ यानी हरिशंकर तिवारी का भी उदय हो गया। कैसे ? ये बड़ी लंबी कहानी है और आगे के अंक में इसे विस्तार से समझेंगे।
पूर्वांचल के बाहुबली हरिशंकर तिवारी के ‘हाता’ को अपना तीर्थ मानते हैं
उसके बाद तो कहते हैं कि हरिशंकर तिवारी ने एक ऐसी नर्सरी लगाई कि उसमें थोक के भाव से अपराधी पैदा होने लगे। पूर्वांचल का भला कौन सा बाहुबली नहीं होगा जो आज की तारीख में भी हरिशंकर तिवारी के ‘हाता’ को अपना तीर्थ न मानता हो। वह चाहे मुख़्तार अंसारी, बृजेश सिंह, अतीक अहमद, विजय मिश्रा, धनंजय सिंह हो या फिर विनीत सिंह ही क्यों न हों।

90 के दशक की समाप्ती के साथ संगठित माफ़ियागिरी का केंद्र गोरखपुर से बनारस की ओर मुड़ गया। गोरखपुर से शुरू होने वाला यह सिलसिला आज गाजीपुर, बलिया, मऊ, बनारस, इलाहाबाद, भदोही, जौनपुर, चंदौली, मिर्जापुर, सोनभद्र जैसे पूर्वांचल के तमाम जिलों में धड़ल्ले से चल रहा है।
सभी राजनैतिक दलों ने बाहुबलियों को संरक्षण दिया
बाहुबल को बढ़ाने में सभी राजनैतिक दल एक साथ कटघरे में खड़े किये जाने की भरपूर योग्यता रखते हैं लेकिन इस दलों का भोलापन तो देखिये सभी दल अपने कुनबे के अपराधी को बड़े करीने से संत का तमगा दे देते हैं और दूसरे दलों के बाहुबलियों को चीख-चीखकर अपराधी बताते रहते हैं।

दरअसल पूर्वांचल में संगठित अपराध 90 के दशक में पैर पसारने लगा और उसी समय से राजनीतिक दलों ने खुले तौरपर बाहुबलियों को संरक्षण देना शुरू कर दिया। अपराध और कालेधन के साथ सफेदपोश नेताओं ने खुली डील शुरू कर दी। अपराधियों को टिकट मिलने लगा और मतदाताओं के पास बस यही विकल्प बचा कि वो अपराधियों कीफेहरिश्त में से अपने सबसे योग्य विधायक का चुनाव कर लें।
कुख्यात ददुआ बांदा, चित्रकुट और आसपास के इलाकों में अपनी राजनीतिक दखल रखता था
2007 में उत्तर प्रदेश के दुर्दांत माफ़िया ददुआ को यूपी एसटीएफ ने मार गिराया, जो बांदा, चित्रकुट और आसपास के अन्य इलाकों में इतनी ज्यादा दहशत रखता था कि कौन विधायक बनेगा, कौन ब्लाक प्रमुख बनेगा या फिर कौन प्रधान बनेगा, यह ददुआ तय किया करता था।

वाराणसी और आसपास के इलाके में राजनीति तब हथियारों का खेल बन गई, जब साल 1985 में ग़ाज़ीपुर ज़िले के मुड़ीयार गांव में दो गुटों में झड़प हुई और त्रिभुवन सिंह और मनकु सिंह के बीच शुरू हुआ हत्याओं का यह सिलसिला एकभूमि विवाद का निहायत ही निजी मामला था लेकिन इसके कारण शुरू हुई हत्याओं का सिलसिला और AK47 की गैंगवार ने पूर्वांचल की राजनीतिक में बाहुबलियों के प्रवेश को एक बड़ा आधार दे दिया।
सबसे पहले मुख्तार के भाई अफजाल और बृजेश सिंह के भाई चुलबुल राजनीति में उतरे
मुड़ीयार गैंगवार के बाद गाजीपुर और वाराणसी में क्रमशः मुख़्तार अंसारी ने अपने बड़े भाई अफ़जाल अंसारी को और बृजेश सिंह ने अपने बड़े भाई उदय नाथ सिंह उर्फ़ चुलबुल को राजनीति में उतार दिया। वैसे अंसारी परिवार आजादी से पहले से राजनीति में खासी दखल रखता था और मुख्तार परिवार का इतिहास भी बड़ा रोचक है, जिसे हम आने वाले अंक में बताएंगे।

अफ़जाल अंसारी के साथ मुख़्तार अंसारी भी राजनीति में उतर गये और मऊ सीट से विधानसभा चुनाव लड़कर लखनऊ पहुंचे। जी हां, उसी मऊ से जहां अभी कुछ दिनों पहले ही सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर औऱ समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने एक बहुत बड़ी जनसभा की। अब आप समझ सकते हैं कि मुख्तार के राजनीतिक क्षेत्र में पहले रैली और उसके बाद ओम प्रकाश राजभर का बांदा जेल में मुख्तार से मुलाकात करना अपने आप में बहुत कुछ रहता है। खैर इस पर भी बाद में चर्चा करेंगे।
ब्रजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह वर्तमान में चंदौली के सैयदराजा से भाजपा के विधायक हैं
अफजाल और मुख्तार के काउंटर में बृजेश सिंह तो राजनीति नहीं उतरे क्योंकि वो दशकों तक फरार रहे लेकिन उन्होंने भी बड़ी खामोशी से पहले अपने बड़े भाई चुलबुल सिंह को वाराणसी से निर्विरोध एमएलसी बनवाया और बाद में अपने भतीजे सुशील सिंह को चंदौली के धानापुर से पहली बार विधायक बनवाकर लखनऊ पहुंचा दिया। सुशील सिंह वर्तमान में चंदौली के ही सैयदराजा से भाजपा के विधायक हैं।

कुल मिलाकर देखें तो पूर्वांचल में माफियागिरी और राजनीति का दशकों से चोली-दामन का अटूट साथ रहा है। इस पूरे मसले में एक बात तो स्पष्ट है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के कोई भी बाहुबली ज्यादा दिनों तक प्रभाव में नहीं रह सकता है।
बाहुबली राजनीति के जरिये अपने काले कारनामों को सफेद करने लगे
यही कारण है कि बाहुबली तेजी से राजनीति में जाने लगे और उसके जरिये वह अपने काले कारनामों के साथ-साथ खुद को सुरक्षित भी करने लगे। बात भी बिल्कुल सही है कि माननीय बन जाएंगे तो पुलिस भी हाथ डालने में डरेगी और एनकाउंटर जैसी चीज तो कोसों दूर हो जाएगी।
पूर्वांचल के ज़्यादातर माफ़िया अपनी रॉबिनहुड वाली छवि के लिए मशहूर हैं। पूर्वांचल के ज्यादातर बाहुबली सरकारी ठेका मसलन रेलवे, शराब और पीडब्लूडी के साथ-साथ कोयले और रियल स्टेट के खेल में उलझे रहते हैं।

अगर कांग्रेस के समय बाहुबलियों ने राजनीति में प्रवेश किया तो सपा और बसपा के शासनकाल में उन्हें पनपने की ऊर्वर जमीन मिली। कांग्रेस के बाद पहले सपा और फिर बसपा ने खुलकर बाहुबलियों को टिकट दिया और विधानसभा की दहलीज तक पहुंचाने का काम किया।
पूर्वांचल की जनता बाहुबलियों के डर से नहीं बल्कि उनके रसूख के कारण वोट करती है
आज के वक्त में पूर्वांचल के बाहुबली कथित खद्दरधारी नेताओं से ज़्यादा स्मार्ट और लंबी सोच वाले नजर आते हैं। यही कारण है कि बीते दो दशकों में पूर्वांचल की जनता का भी डर खत्म हो गया है और अब वह बाहुबलियों के डर से नहीं बल्कि उनके रसूख के कारण वोट करती है।

हर माफिया 20-20 गाड़ियों का काफिला लेकर चलता है और रास्ते में जिधर से भी गुजर रहा हो, जिस किसी के भी दरवाजे पर ठहर गया तो पूरे इलाके में उस साधारण से आदमी की छवि अचानक दबंग में परिवर्तित हो जाती है। यही कारण है कि जनता भी अब ऐसे बाहुबलियों को हिकारत की नजरों से नहीं देखती बल्कि वह उनके लिए तन, मन और धन से काम करने लगी है।
2005 में भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के साथ गैंगवार का खौफनाक चेहरा सामने आया था
पूर्वांचल में साल 2005 में आखिरी बार भाजपा के विधायक कृष्णानंद राय की गाजीपुर में AK-47 से हजारों राउंड फायर करके हत्या की गई। उस हमले के कारण एक बार फिर मुख्तार और बृजेश गैंग के बीच चल रहे गैंगवार का खौफनाक चेहरा सामने आया था। उसके बाद दोनों गैंग ने आपसी सुलह में अपने-अपने इलाके और धंधे बांट लिये। आज दोनों गैंग बड़ी ही खामेशी से सारे अपराध कर रहे हैं और अपना व्यापार भी बढ़ा रहे हैं।

पूर्वांचल के इन्हीं बाहुबलियों पर हम कई किश्तों में एक सीरिज ला रहे हैं, हमारा इरादा इन्हें कतई ग्लैमराइज करने का नहीं है बल्कि हम इनके अतीत से वर्तमान तक की कहानी और खेल से आपको रूबरू करवाएंगे। आप भी जानिए आखिर कैसे पूर्वांचल की राजनीति को प्रभावित करते हैं, यह माफिया या बाहुबली।
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