जानिए विनोबा भावे ओर उनके द्वारा चलाए गए Bhoodan Movement के बारे में, भूदान आंदोलन को कहा जाता है आजादी के बाद का पहला आंदोलन

विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement) के दौरान देश के कोने-कोने की यात्रा की. उन्होंने करीब 58 हजार 741 किलोमीटर सफर तय किया ओर आंदोलन के माध्यम से वह गरीबों के लिए 44 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे.

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जानिए विनोबा भावे ओर उनके द्वारा चलाए गए Bhoodan Movement के बारे में, भूदान आंदोलन को कहा जाता है आजादी का बाद का पहला आंदोलन - APN News

1 सितंबर 1885 को गागोडे, बॉम्बे प्रेसीडेंसी (वर्तमान महाराष्ट्र) में जन्मे विनायक नरहरि भावे जो स्वतंत्रता सेनानी ओर समाज सुधारक भी थे की कोशिश थी कि भारत में भूमि का पुनर्वितरण (Redistribution) सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए न होकर, एक आंदोलन के माध्यम से इसको सफल करने की कोशिश की जाए. इसके लिए उन्होंने भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement) की शुरुआत की.

भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement) में पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन मात्र 44 लाख एकड़ जमीन को ही लोगों द्वारा दान किया गया

विनोबा भावे एक गांधीवादी थे, उन्होंने भूदान आंदोलन को लेकर कई राज्यों में पदयात्राएं कर जमींदार एवं भू-स्वामियों (Landlords) से मिलकर जरूरत से ज्यादा भूमि को गरीब किसानों में बांटने का आग्रह किया.

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भूदान आंदोलन

तेलंगाना में हैदराबाद से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर स्थित ‘पोचमपल्ली’ गांव से 18 अप्रैल, 1951 को आचार्य विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement) की शुरुआत की, आंदोलन के चलते ही इस गांव को ‘भूदान पोचमपल्ली’ के नाम से भी जाना जाता है.

18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव के हरिजनों ने विनोबा भावे से मुलाकात कर करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया ताकि वे लोग अपना जीवन-यापन कर सकें. विनोबा भावे ने गांव के जमींदारों से आगे बढ़कर अपनी जमीन हरिजनों को दान करने की अपील की. उनकी अपील का असर हुआ ओर जमींदारों ने अपनी जमीन देना शुरू कर दिया. यह आंदोलन 13 सालों तक चलता रहा.

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आंदोलन का इतिहास

1947 में मिली आजादी के बाद भारत में कृषि जोतों में काफी असमानता थी, जिसके चलते उत्पन्न हुई आर्थिक विषमता (Economic Inequality) के कारण कृषकों की दशा अत्यंत दयनीय हो गई. देश के छोटे और भूमिहीन कृषकों की दशा सुधारने के लिए विनोबा भावे ने 1951 में भूदान एवं ग्रामदान आंदोलनों की शुरुआत की, जिसका मुख्य उद्देश्य भूमिहीन निर्धन किसान समाज को मुख्य धारा से जोड़कर गरिमामय जीवन प्रदान करना था.

लंबे ब्रिटिश शासन के बाद मिली आजादी के बाद भारत की लगभग 57 फीसदी कृषि योग्य भूमि कुछ बड़े जमींदारों के पास थी. विनोबा भावे का मानना था कि भूमि का वितरण सरकार कानून बनाकर न करे बल्कि देश भर में एक ऐसा आंदोलन चलाया जाए जिससे वे जमींदार जिनके पास जरूरत से ज्यादा भूमि है, स्वेच्छा से जरूरतमंद किसानों को दे दें.

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कितना लंबा चला भूदान आंदोलन

विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन (Bhoodan Movement) के दौरान देश के कोने-कोने की यात्रा की. उन्होंने करीब 58 हजार 741 किलोमीटर सफर तय किया ओर आंदोलन के माध्यम से वह गरीबों के लिए 44 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे. उन जमीनों में से 13 लाख एकड़ जमीन को भूमिहीन किसानों के बीच बांट दिया गया.

जहां एक ओर इन आंदोलनों ने भूमि वितरण कर असमानता को दूर करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों के लोगों की आकांक्षाएं पूरी न हो पाई, वहां नक्सलवाद जैसे आंदोलनों की नींव पड़ गई जिससे वर्ग संघर्ष का साथ-साथ हिंसा में भी उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली.

इस आंदोलन ने दुनिया भर से प्रशंसको को आकर्षित किया तथा स्वैच्छिक सामाजिक न्याय को जागृत करने हेतु इस तरह के एकमात्र प्रयोग के कारण इसकी सराहना की गई.

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ग्रामदान आंदोलन

आंदोलन के दौरान कुछ जमींदार जो कई-कई गांवों के मालिक थे, उन्होंने पूरा-का-पूरा गांव भूमिहीनों किसानों और अन्य लोगों को देने की घोषणा की जिसे ग्रामदान कहा गया. इन गांवों की भूमि पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व स्वीकार किया गया. इसकी शुरुआत ओडिशा से हुई.

1952 में शुरू हुए ग्रामदान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक गांव में भूमि स्वामियों और पट्टाधारकों को उनके भूमि अधिकारों को छोड़ने के लिये राजी करना था. ग्रामदान के तहत मिली भूमि को समतावादी पुनर्वितरण एवं संयुक्त खेती के लिए ग्राम संघ की संपत्ति बना दिया जाता था.

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अगर एक गांव के 75 फीसदी निवासी (जिनके पास 51 फीसदी भूमि थी) की ग्रामदान के लिये लिखित स्वीकृति मिलने के बाद ही उस गांव को ग्रामदान के रूप में घोषित किया जाता था. ग्रामदान के तहत आने वाला पहला गांव मैग्रोथ, हरिपुर (उत्तर प्रदेश) था.

ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी जाती है, जिसपर सभी गांववासियों का बराबर का अधिकार था. इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली. 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे. इनमें दो हजार के करीब गांव उड़ीसा के थे, जबकि 603 गांवों के साथ महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था.

आंदोलन की सफलता और अंत

1947 में मिली आजादी के बाद ये पहला आंदोलन था जिसने एक आंदोलन (सरकारी कानून से नहीं) के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रयास किया. इस आंदोलन के माध्यम से एक ऐसा माहौल बना जिससे कई क्षेत्रों के बड़े जमींदारों पर दबाव पड़ा. इसने किसानों और भूमिहीनों के बीच राजनीतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया एवं किसानों को संगठित करने हेतु राजनीतिक प्रचार के लिये एक जमीन तैयार की.

वास्तविकता यह है कि 1964 तक एकत्रित हुई कुल 42,27,476 एकड़ भूमि में से लगभग 14,84,830 एकड़ भूमि को खेती के लिए अनुपयुक्त पाया गया था. इसलिए, कुल जमीन का लगभग 35.8 फीसदी खराब भूमि थी जिसका कोई उपयोग नहीं हो सकता था. 31 मार्च 1967 तक केवल 42,64,096 एकड़ भूमि एकत्र की गई है, जिसमें से दान में मिली भूमि का 35 फीसदी से अधिक खराब या बंजर भूमि है.

1960 के बाद यह आंदोलन काफी कमजोर पड़ गया क्योंकि आंदोलन की रचनात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं किया गया. दान में मिली 44 लाख एकड़ से अधिक भूमि में से बहुत कम ही भूमिहीन किसानों के काम आ सकी, क्योंकि ज्यादातर बंजर भूमि ही दान में मिली जिसको कोई भी लेने के लिए तैयार नहीं हो रहा था.

वर्ष 1969 के आस-पास आंदोलन अपने चरम पर था. अनेक राज्य सरकारों ने ग्रामदान और भूदान के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कानून बनाए. वर्ष 1969 के बाद ग्रामदान और भूदान ने स्वैच्छिक आंदोलन की जगह सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रम में स्थानांतरित होने के कारण अपना महत्व खो दिया, इसके अलावा आंदोलन से वर्ष 1967 में विनोबा भावे के निकल जाने के बाद इस आंदोलन के जनाधार में ओर भी कमी आई.

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1982 में निधन

आचार्य विनोबा भावे का लंबी बीमारी के बाद 15 नवंबर, 1982 को वर्धा में निधन हो गया. विनोभा भावे 1958 रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय थे. विनोभा को 1983 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (मरणोपरांत) से भी सम्मानित किया गया.

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