लोकपाल की नियुक्ति के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की राय पर सरकार को तुरंत अमल करना चाहिए। वर्तमान भाजपा सरकार कुर्सी में इसीलिए बैठ पाई है कि पिछली कांग्रेसी सरकार गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी। भ्रष्टाचार और उसकी ज़हरीली खबरों से लोग इतने खफा हो गए थे कि उन्होंने कुछ नौसिखिए लड़कों और एक खोखले प्रतीक की चुनौती को राष्ट्रीय जन-आंदोलन बना दिया था। उसी आंदोलन की लहर पर सवार होकर भाजपा सत्ता में आई लेकिन तीन वर्ष बीत गए, अभी तक लोकपाल नियुक्त नहीं किया जा सका। इसका तर्क यह है कि लोकसभा में आजकल कोई प्रतिपक्ष का नेता ही नहीं है जबकि उसके बिना लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती। लोकपाल कानून के मुताबिक पांच लोगों की कमेटी उसे नियुक्त करेगी। प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रतिपक्षी नेता, मुख्य न्यायाधीश और एक विख्यात विधिशास्त्री। कानून कहता है कि प्रतिपक्ष अपना नेता तभी बना सकता है, जबकि उसके पास लोकसभा के कम से कम 10 प्रतिशत याने 55 सदस्य हों। कांग्रेस के पास सिर्फ 44 ही हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि स्पीकर और मुख्य न्यायाधीश मिलकर किसी विधिशास्त्री को नामजद कर सकते हैं और वे सबसे बड़ी विरोधी संसदीय पार्टी (कांग्रेस) के नेता को भी नामजद कर सकते हैं। वे लोकपाल की नियुक्ति को अनंतकाल तक टाल नहीं सकते। यदि सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही तो संसद की यह अवधि खाली ही चली जाएगी। यह अजीब बात है कि सूचना आयोग, सतर्कता आयोग और सीबीआई के मुखियाओं की चयन समिति के सामने आई इसी तरह की कठिनाई को सरकार ने कानून बदलकर हल कर लिया लेकिन लोकपाल के मामले को उसने अधर में लटका दिया है।इससे शंका होती है कि दाल में कुछ काला है। नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में 7 साल तक लोकपाल का पद खाली रखा। सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान अभिमत सरकार की स्वच्छ छवि पर उंगली उठाने का मौका देता है। इस सरकार को लोकपाल से घबराने की कोई जरुरत नहीं है। पिछले तीन साल में राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार का कौन सा मामला सामने आया है? यदि मोदी अपनी छवि चमकाना चाहते हों तो एक अध्यादेश के जरिए लोकपाल की नियुक्ति तुरंत भी की जा सकती है।

डा. वेद प्रताप वैदिक

Courtesy: http://www.enctimes.com

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