-दया सागर

आज देश के मिसाइल मैन और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की 86वीं जयंती है। पूरा देश आज उनके व्यक्तित्व, प्रतिभा और भारत को दिए उनके योगदान को जान रहा है, समझ रहा है और उनको आदर्श मानकर खुद को वैसा बनाने का संकल्प ले रहा है। कलाम साहब आज जिंदा तो नहीं है लेकिन समस्त देशवासियों के बीच में जरूर हैं। बच्चों के दिलों में, युवाओं के आत्मबल में, छात्रों के मस्तिष्क में और आम जनता के संस्कृति और परंपरा में वो आज भी जिंदा हैं। उनकी याद में आज मुझे भी अपने बचपन की वो घटना याद आती है जब…..

शायद वो हमारा बचपना था पर हमने भी एक बार प्रिय और प्रेरणा स्रोत व्यक्ति डा. कलाम की एक झलक पाने की पुरजोर पर असफल कोशिश की थी।

बात शायद अगस्त 2003 की है, तब मैं क्लास पांचवीं में था और कलाम साहब गोरखपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आए हुए थे। अचानक से हमें खबर मिली कि कलाम साहब हमारे कस्बे मगहर में भी कबीर दास के समाधि और मज़ार पर दर्शन के लिए आ रहे हैं। इस खबर को सुनकर हम सब भाइयो में एक असीम ऊर्जा का संचार हुआ कि हमें भी अपने “आइडियल” का एक झलक पाने का मौका मिलेगा। पर यह ऊर्जा उस समय ध्वस्त हो गई जब हमें पता चला उनकी यह यात्रा एक निजी यात्रा है, कोई सार्वजनिक यात्रा नहीं। इसलिए उनकी यह यात्रा एकदम गोपनीय रहेगी और किसी को भी कबीर चौरा धाम और उसके आस पास के विस्तृत फैले हुए क्षेत्र में प्रवेश नहीं मिलेगा।

इसके पहले हम लोग को था कि हम लोग रोज मैच खेलने उधर जाते है तो अगर कोई सार्वजानिक कार्यक्रम नहीं भी होगा तो भी मैच खेलते-खेलते ही हम लोग उनको कार से जाते और उतरते वक़्त ही देख लेंगे। बस उन्हें एक पल कर लिए देखना ही तो था! हम लोगो के बालमन में उनका बस एक झलक पाने की ललक भर ही तो थी! इससे पहले भी हम कई मंत्रियों और अन्य अधिकारियों को ऐसे ही मैच खेलते-खेलते ही अक्सर एम्बेसडर कारों से चढ़ते उतरते देख लिया करते थे। हमें लगा था कि कलाम साहब भी इसी तरह आएंगे और हमारे बालमन की इच्छा पूरी हो जायेगी।

पर शायद राज्य के मंत्रियों और देश के राष्ट्रपति में बहुत बड़ा फर्क होता है। पूरा कबीर चौरा और आस पास का क्षेत्र छावनी में तब्दील हो चुका था और जगह जगह पुलिस ही नहीं बल्कि आर्मी के भी जवान तैनात थे। जिस मगहर और मगहर की गलियों को हम अपनी ‘जागीर’ समझते थे वो हमारी नहीं रह गई थी।

फिर भी हमने एक कोशिश करने की ठानी और निकल पड़े उसी हॉफ पैंट और हॉफ टीशर्ट में राष्ट्रपति जी से मिलने, जिसमें हम रोज मैच खेला करते थे। चूंकि सभी मुख्य मार्गो पर पुलिस का पहरा था इसलिए हमने खेतों और बगीचों के रास्ते जाने का फैसला किया।

अगस्त की वो शाम थी। मानसून अपने चरम पर था। खेत और बगीचे कीचड़ से लबालब भरे थे। आसमान से बरसती बूंदे मानो कलाम साहब का स्वागत कर रही थी, पर यही बूंदे हमारे रास्ते को और दूभर बना रही थीं।

पर वो ललक थी झलक पाने की, कि हम कीचड़ों, खर-पतवारों में भी चलते जा रहे थे। तभी उन खर-पतवार और बांस की झाड़ियों के बीच मेरा हॉफ पैंट फस गया और उसका कांटा पैरों में चुभ गया। गुठने के नीचे के नंगे पांव पर कांटा चुभने से खून निकल रहा था पर तुरंत उस मानसूनी बरसात के पानी से धुलता भी जा रहा था। लेकिन हम खुश थे कि शायद हम आज कलाम साहब को देख पाएंगे।

उसी हसी-खुशी के साथ ‘कबीर गुफा’ होते हुए हम ‘बंधे’ वाली उस रोड तक पहुँच गए जहाँ से केवल 200-250 कदम के दूरी पर कबीर मठ का पिछला दरवाजा (Backdoor) था। पर तभी एक पेड़ की डाली पर सेना के जवान ने हमें देख लिया और हमें चोरी से आता हुआ देख हरकत में आ गया और अपनी पोजीशन भी ले ली। थोड़ा और नजदीक पहुंचने पर वह पेड़ सेे उतरा और हमें बच्चा (छोटी उम्र का) देखकर पहले कुछ सहज हुआ और फिर हम से पूछताछ करने लगा कि हम कौन हैं,कहाँ से हैं और इस तरीके से क्यों आ रहे है?

हमने भी बाल सुलभ उत्तर दिया कि हम ‘स्टूडेंट’ हैं और हमें राष्ट्रपति सर से मिलना है. लेकिन उस जवान ने हमें साफ मना कर दिया और कहा कि यह संभव नहीं है। हमारे काफी अनुनय-विनय करने पर उन्होंने समझाया कि “वैसे भी राष्ट्रपति जी सिर्फ 10 मिनट के लिए ही आ रहे हैं और समाधि और मज़ार पर फूल और चादर चढ़ा के चले जाएंगे।”

इस उत्तर के बाद हमारी बालमन वाली ऊर्जा और उत्साह भी उसी तरह धीमी हो गई जिस तरह बारिश की फुहार अब धीमी होती जा रही थी। अब हम थक भी गए थे इसलिए हम फिर से उन्ही कंटीली-कीचड़ भरे रास्तो से होते हुए वापस घर आ गए।

उम्र बढ़ने के साथ कलाम साहब की एक ‘झलक पाने की ललक’ अब एक सपनें और एक इच्छा में बदल चुकी थी। मेरे भइया का यह सपना पूरा भी हुआ जब उनके कॉलेज के एक कार्यक्रम में कलाम साहब ने मुख्य अतिथि के तौर पर हिस्सा लिया। पर बाकी के लोगो की इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो पाई। फिर भी एक आशा बनी रहती थी कि ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर चलते चलते शायद कभी एक झलक मिल ही जाए। दिल्ली में रहते हुए कभी न कभी किसी दिन ‘सर’ को शायद देख ही लूं…किसी संगोष्ठी या अन्य कार्यक्रमो में।
पर, आज वो आशा भी समाप्त हो गई, वो सपना भी बिखर गया। मैं अपना चेहता न्यूज़ प्रोग्राम ‘प्राइम टाइम’ देख रहा था कि अचानक रविश कुमार गुरुदासपुर वाली घटना को सुनाते सुनाते रुंध से गए और फिर यह दुःखद समाचार सुनाया कि कलाम साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह सुन के मैं कुछ प्रतिक्रिया देता ही कि बगल में बैठी बहन रोने लगी और थोड़ी देर के लिये ‘अवचेतन अवस्था’ में भी पहुँच गयी। होश आने पर कहा कि कलाम सर से मिलना मेरा एक सपना था, वो मेरे सच्चे प्रेणक थे…मैं बड़ा होके, कुछ बनके उनसे मिलना चाहती थी…पर शायद !!!

मुझे याद नहीं कि उस बचपन के उस ‘असफल यात्रा’ में वह हमारे साथ थी या नहीं पर इतना तो तय है कि कलाम साहब ने मेरी बहन और हम जैसे कई युवाओं को असीम प्रेरणा दी है और युवाओं ने भी उनसे एक भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित किया है। कलाम साहब की शख्सियत ही ऐसी है कि सभी लोग दलगत, जातिगत और धर्मगत सीमाओं से उपर उठकर उन्हें भावभीनी श्रद्दांजलि दे रहे हैं।

और ये सब देखकर बस एक शेर याद आ रहा है…

“हम ना परिंदे है ना मक़बूल हवायें फिर भी,
आ किसी रोज किसी के दुःख पर इक्कट्ठे रोये !!”

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