उच्चतम न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर पुनर्वास क़ानून को चुनौती देने वाली याचिका पर गुरुवार को पूछा कि देश विभाजन के दौरान पाकिस्तान जा चुके लोगों के वंशजों को भारत में फिर से रहने की इजाज़त कैसे दी जा सकती है। शीर्ष अदालत ने कश्मीर पैंथर पार्टी की ओर से दायर याचिका की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार से सवाल किया कि जम्मू-कश्मीर में पुनर्वास के लिए अभी तक कितने लोगों ने आवेदन किया है? यह क़ानून 1947-1954 के बीच पाकिस्तान जा चुके लोगों को हिंदुस्तान में पुनर्वास की इजाज़त देता है।

याचिकाकर्ता का दावा है कि यह क़ानून असंवैधानिक और मनमाना है। इसके चलते राज्य की सुरक्षा को खतरा हो गया है। केंद्र सरकार ने भी याचिकाकर्ता का समर्थन किया है।

नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) के वरिष्ठ नेता अब्दुल रहीम रादर की ओर से आठ मार्च, 1980 को पेश किए गए जम्मू-कश्मीर पुनर्वास विधेयक को तत्कालीन नेकां सरकार द्वारा केंद्र की कांग्रेस सरकार को भेजा गया था। जम्मू-कश्मीर विधानमंडल के दोनों सदनों ने अप्रैल 1982 में विधेयक पारित किया था लेकिन तत्कालीन राज्यपाल बी के नेहरू ने इसे पुनर्विचार के लिए वापस कर दिया था। फारूक अब्दुल्ला सरकार के दौरान इस विधेयक को दोनों सदनों द्वारा फिर से पारित किया गया था और तत्कालीन राज्यपाल को अपनी सहमति देनी पड़ी थी।

तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने, हालांकि इसकी संवैधानिक वैधता के संबंध में अदालत की राय लेने के लिए राष्ट्रपति के संदर्भ के तौर पर इसे शीर्ष अदालत के पास भेजा था। यह मामला अदालत में लगभग दो दशकों तक लंबित रहा। आखिरकार, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसपी बरोचा के नेतृत्व में पांच-सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने इसे आठ नवंबर, 2001 को बिना उत्तर दिए वापस कर दिया था। इसके बाद जम्मू-कश्मीर की पैंथर्स पार्टी ने शीर्ष अदालत में इस कानून को चुनौती दी है।

साभार, ईएनसी टाईम्स

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here