बकरीद का बकरा आया कहां से ?

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Mumbai News: Uproar Over Goats top news today
goat sacrificed on bakrid

एक आंकड़े के मुताबिक भारत की आबादी में 15 प्रतिशत योगदान मुस्लिम आबादी का है। आज बकरीद का त्योहार है, जिसे देशभर में मुस्लिम समुदाय खुशी से मना रहा है। आमतौर पर इस त्योहार की पहचान बकरे की कुर्बानी मानी जाती है। लेकिन क्या ये त्योहार सिर्फ एक जानवर की कुर्बानी से जुड़ा है या इससे भी अधिक कुछ है। इसके बारे में हम आपको बताएंगे। इस समय सोशल मीडिया पर दो तरह के रिएक्शन देखने को मिल रहे हैं। एक यूजर्स वो हैं जो बकरे की कुर्बानी को बेजुबानों के प्रति हिंसा बता रहे हैं वहीं दूसरे वो हैं जो कह रहे हैं कि जब साल भर जानवर कुर्बान होते हैं तो इस त्योहार पर ही हल्ला क्यों?

सबसे पहले तो यह जान लेते हैं कि इस्लाम या मुस्लिम समुदाय में बकरीद के त्योहार को लेकर क्या मान्यताएं हैं। इतिहासकारों की मानें तो यह त्योहार लगभग 1300 सालों से मनाया जा रहा है। यानी जितना पुराना इस्लाम है उतना ही पुराना ये त्योहार। मान्यता ये है कि इब्राहिम को अल्लाह का हुक्म मानते हुए अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करना था। जानकारों के मुताबिक इस त्योहार का अर्थ ये है कि ईश्वर के प्रति विश्वास या उसकी आज्ञा के प्रति आपका विश्वास इतना अडिग हो कि आप कुछ भी कर सकें। मुसलमान अल्लाह के प्रति समर्पण की भावना से इस त्योहार को मनाते हैं।

कहानी के मुताबिक इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल से कहते हैं कि मैंने सपना देखा कि मैं तुम्हें कुर्बान कर रहा हूं। जवाब में उनके बेटे ने कहा कि आप वहीं करें जैसा आपको आदेश हुआ है। हालांकि आखिर में ईश्वर इब्राहिम की भावना से प्रसन्न होते हैं और इस्माइल बच जाते हैं। इस तरह इब्राहिम अपने इम्तिहान में कामयाब रहते हैं।

बकरे की कुर्बानी आई कहां से?

इस त्योहार के साथ परंपरा ये रही है कि किसी जानवर की कुर्बानी की जाए और उसके गोश्त को परिवार, दोस्तों और गरीबों में बांटा जाए। कुलमिलाकर लक्ष्य यह कि सबको गोश्त खाने को मिले। आपको बता दें कि इस्लाम के उदय से पहले सऊदी अरब का समाज घुमंतू और कबीलियाई था। इस क्षेत्र में शुरू से जानवरों को मारकर खाना एक आम बात रही है। इस्लाम के उदय के बाद एक सूअर को छोड़ बाकी जानवरों को हलाल कर के खाया जाता रहा है। एक अहम बात ये है कि सऊदी अरब में अधिकतर क्षेत्र में मरुस्थल ही है। यह एक बड़ा कारण है कि यहां के लोगों ने शुरूआत से ही मांसाहार किया। यहां तक कि यहां कोई स्थायी नदी है ही नहीं। उर्वरक भूमि शायद ही कहीं कहीं मिलती है। इसके अलावा तापमान 50 से ऊपर जाना बहुत आम बात है। बारिश भी बहुत कम होती है।

अब सवाल ये है कि जब सऊदी में घास के मैदान, हरियाली की इतनी कमी है तो इस्लाम में घास खाने वाले जानवरों की कुर्बानी का रिवाज आया कहां से ?इस मामले में ऊंट को छोड़ सकते हैं क्योंकि ऊंट मरुस्थल का जहाज है। अगर गौर किया जाए तो पता चलेगा कि ईद उल अजहा , बकरीद के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रिय है। सऊदी के मुकाबले भारत में इतनी सारी नदियां हैं। इसके अलावा मानसून भी है। जिसके चलते देश में एक बड़ा हरित क्षेत्र शुरू से रहा है। इसलिए यहां अलग-अलग तरह के घास खाने वाले जानवर शुरू से पाए जाते रहे हैं। इस्लाम के साथ भारत में ईद का त्योहार आया। चूंकि यहां कुर्बान करने के लिए इतने सारे जानवर थे। इसलिए आप देखेंगे कि भारत में मुस्लिम समुदाय बकरे के अलावा बहुत सारे ऐसे जानवरों की कुर्बानी करता है जो घास खाते हैं या मवेशी हैं।

भारत में मांसाहार

ऐसा नहीं है कि भारत में मांसाहार सिर्फ इस्लाम आने के बाद शुरू हुआ। आज भी देश की एक बड़ी आबादी मांसाहारी है। चूंकि देश कृषि प्रधान शुरू से रहा है। इसलिए यहां मवेशी को भोजन के रूप में ग्रहण करना बुरा नहीं माना जाता है। इस्लाम के आने से सदियों पहले से भारतीय समाज मांस खाता आया है। संस्कृत के कई श्लोकों में कुर्बानी की तरह ही बलि का उल्लेख है। कुछ मायनों में बलि और कुर्बानी एक जैसे ही लगते हैं। हालांकि साफ कर दें कि भारत में बलि का अर्थ सिर्फ पशुओं को मारना नहीं रहा है। कई जगह इसका अर्थ दान करना भी है। गृहपशु यानी पालतू पशु को मारना या उसे भोजन के रूप में खाना गलत नहीं माना जाता था। इसके अलावा देवताओं को बलि चढ़ाने का उल्लेख बहुत बार मिलता है।

समस्या कहां है

जब भारत में मांसाहार होता आया है तो दिक्कत कहां है? एक तर्क ये दिया जाता है कि भारत में सिर्फ मांसाहार ही नहीं किया जाता। बल्कि एक बड़ा तबका शाकाहारी है। यहां कृषि होती है तो फल, सब्जियां और दूसरी फसलें उगती हैं। उन्हें खाद्य के रूप में ग्रहण किया जाए। इस्लाम या मुस्लिम समुदाय की संस्कृति में अगर मांसाहार है तो भारत की संस्कृति में शाकाहार भी है।

पेंच यह है कि खाना पीना संस्कृति का हिस्सा है। कोई समाज या व्यक्ति किस संस्कृति को प्राथमिकता देता है ये उस पर निर्भर करता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय मुस्लिम सब्जी या दाल नहीं खाते। हिंदू भी गोश्त खाते हैं। अब किसकी थाली में कितना गोश्त हो और कितनी दाल सब्जी ये उस व्यक्ति पर ही छोड़ देना चाहिए। क्योंकि यह व्यक्तिगत या निजी चयन का मामला है।

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